Saturday, November 23, 2024

रिटायरमेंट के बाद सरकारी पदों पर जजों की नियुक्ति स्वतंत्र न्यायपालिका के लिए खतरे का संकेत है

30 सितंबर 2012 को राज्यसभा में बतौर नेता प्रतिपक्ष अरुण जेटली का ये बयान फिर एक बार चर्चा में है. इस बार वजह है जस्टिस अब्दुल नजीर को सुप्रीम कोर्ट से रिटायर होने के एक महीने बाद ही आंध्र प्रदेश का राज्यपाल नियुक्त किया जाना. साल 2012 में अरुण जेटली ने ये बयान राज्यसभा में दिया था. उन्होंने जजों के लिए ‘कूलिंग पीरियड’ की वकालत करते हुए कहा था कि, “सेवानिवृत्ति से पहले दिये गए फैसले सेवानिवृत्ति के बाद मिलने वाले पद की चाहत से प्रभावित होते हैं. इसलिए मेरी सलाह है कि सेवानिवृत्ति के बाद किसी भी पद पर नियुक्ति से पहले दो सालों का अंतराल होना चाहिए अन्यथा सरकार प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अदालतों को प्रभावित कर सकती है और एक स्वतंत्र, निष्पक्ष और ईमानदार न्यायपालिका कभी भी वास्तविकता नहीं बन पाएगी.” दरअसल अरुण जेटली जी नेता होने के साथ-साथ एक वरिष्ठ वकील भी थे.इसलिए उनकी ये बातें बहुत महत्व रखती हैं.

न्यायमूर्ति अब्दुल नजीर को आंध्र प्रदेश का राज्यपाल नियुक्त करने से उठा सवाल

अरुण जेटली के इस बयान के संदर्भ में देखें तो केवल न्यायमूर्ति अब्दुल नजीर ही नहीं बलकि उनके साथ-साथ हाल ही में की गई तीन और नियुक्तियों ने भी रिटायरमेंट के बाद सरकारी पदों पर जजों की नियुक्तियों और इसको लेकर जजों के अपने विवेक पर भी बहस छेड़ दी है.
ताजा मामला न्यायमूर्ति अब्दुल नजीर का है जिनको सेवानिवृत्त होने के एक महीने बाद ही आंध्र प्रदेश का राज्यपाल नियुक्त कर दिया गया है. कहा जा रहा है कि उनको अयोध्या केस और 2016 नोट बंदी पर सरकार के पक्ष में फैसला देने का इनाम मिला है. न्यायमूर्ति अब्दुल नजीर अयोध्या मामले में राम मंदिर निर्माण की सुनवाई करने वाली पीठ में अकेले अल्पसंख्यक न्यायाधीश थे. इसके अलावा हाल में 2016 नोटबंदी मामले में सरकार को क्लीन चिट देने वाले फैसले का भी वो हिस्सा थे.
वैसे जस्टिस नज़ीर अकेले ऐसे जज नहीं हैं जिन्हें रिटायरमेंट के फौरन बाद कोई सरकारी पद दिया गया हो. इससे पहले 3 और जजों के साथ भी ऐसा हुआ है. 6 जुलाई 2018 को जस्टिस एके गोयल को सुप्रीम कोर्ट के जज के रूप में सेवानिवृत्त होने वाले दिन ही नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) का चेयरमैन नियुक्त किया गया था. इससे पहले मई 2018 के आखिरी हफ्ते में जस्टिस आरके अग्रवाल को सुप्रीम कोर्ट से रिटायर होने के कुछ ही हफ्ते बाद नेशनल कंज्यूमर रिड्रेसल कमीशन (एनसीडीआरसी) का चेयरमैन बनाया गया था.

पहले भी जजों की नियुक्तियों को लेकर उठे हैं सवाल

वैसे मौजूदा सरकार में जजों की नियुक्तियों को लेकर पहले भी बवाल होते रहे हैं. जैसे भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश पी सदाशिवम को सितंबर 2014 में केरल का राज्यपाल बनाया जाना. जस्टिस सदाशिवम तुलसीराम प्रजापति मामले में गृहमंत्री अमित शाह के खिलाफ दायर की गयी दूसरी एफआरआई को खारिज करने के फैसले में शामिल थे. इसी तरह जस्टिस रंजन गोगोई को राज्यसभा में मनोनीत करना. जब जस्टिस रंजन गोगोई को राज्यसभा में भेजा गया था तब विपक्ष ने उसे उनके राम मंदिर को लेकर दिए गए फैसले का इनाम बताया था जबकि सत्ता पक्ष ने तब जस्टिस रंगनाथ मिश्रा का उदाहरण देकर अपना बचाव किया था. कहा जाता है कि जस्टिस रंगनाथ मिश्रा ने 1984 सिख दंगों के मामले में कांग्रेस को क्लीन चिट दी थी और रिटायरमेंट के बाद उन्हें NHRC का अध्यक्ष बना दिया गया था.
वैसे रिटायरमेंट के बाद जजों की नियुक्ति का सिलसिला 2014 के बाद से ही शुरू हुआ हो ऐसा नहीं है. आज़ादी के फौरन बाद ही इस तरह की मिसालें मिलनी शुरु हो जाती हैं. 1958 में बॉम्बे हाई कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एम.सी. छागला को संयुक्त राज्य अमेरिका में भारत का राजदूत बनाया गया था. इसके बाद वो यूके में उच्चायुक्त भी रहे. न्यायाधीश एम.सी. छागला ने तत्कालीन पीएम जवाहर लाल नेहरू, से लेकर इंदिरा गांधी सरकार तक में शिक्षा मंत्री और विदेश मंत्री के रूप में काम किया. इसके बाद सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस बहरुल इस्लाम की भी बहुत चर्चा रही. दरअसल जस्टिस बहरुल इस्लाम को रिटायरमेंट के बाद 1983 में इंदिरा गांधी सरकार में राज्यसभा के लिए नॉमिनेट किया गया था. पूर्व चीफ जस्टिस रंगनाथ मिश्रा को सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद नरसिम्हा राव सरकार ने NHRC की अध्यक्षता सौंप दी थी. इसी तरह एचडी देवेगौड़ा की सरकार ने भी सुप्रीम कोर्ट की पूर्व न्यायाधीश फातिमा बीवी को 1997 में तमिलनाडु की राज्यपाल बनाया था.
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यूपीए में 30 प्रतिशत तो एनडीए में 50 प्रतिशत है जजों की रिटायरमेंट के नियुक्ति की दर

अगर कुल मिलाकर देखा जाए तो कांग्रेस, तीसरे मोर्चे की सरकार से लेकर बीजेपी तक कोई भी इस मामले में दूध का धुला नहीं है लेकिन पिछली सरकारों और 2014 के बाद एक फर्क जरूर आया है जिसकी चर्चा करते हुए वरिष्ठ कांग्रेसी नेता राशिद अल्वी ने कहा कि जज को सरकारी नौकरी देना, पद देना बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है. उन्होंने एक रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा कि सुप्रीम कोर्ट के 50 प्रतिशत रिटायर्ड जज ऐसे हैं जिन्हें सरकार ने कहीं ना कहीं जगह दे रखी है, जिसकी वजह से न्याय व्यवस्था से लोगों का भरोसा कम होता जा रहा है. राशिद अल्वी ने कहा कि अभी जस्टिस गोगोई को राज्य सभा का सदस्य बना दिया गया था और अब जस्टिस नज़ीर को गवर्नर बना दिया

अगर आंकड़ों की बात करें तो पहले जजों को सरकारी कृपा मिलने के मामले 30 प्रतिशत तक थे जो अब बढ़कर 50 प्रतिशत तक पहुंच गए हैं. इस मसले पर कांग्रेस नेता और वरिष्ठ वकील अभिषेक मनु सिंघवी का कहना है कि “मैं ये नहीं कह रहा हूं कि ये पहली बार हुआ है लेकिन अब ये ज्यादा हो रहा है जो सैद्धांतिक तौर पर बिलकुल गलत है.”
अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा कि वो किसी व्यक्ति विशेष के खिलाफ नहीं बोल रहे हैं. ये स्वतंत्र न्यायिक व्यवस्था के लिए खतरनाक है इसलिए मैं इसका विरोध करता हूं.”

कूलिंग पीरियड का पालन बढ़ाएगा न्यायपालिका की विश्वसनीयता

आरोप- प्रत्यारोप तो लगते ही रहेंगे लेकिन सवाल ये है कि कानून की अवधारणा इस बारे में क्या है. तो हमारे देश में कहा जाता है कि इंसाफ न केवल होना चाहिए, बल्कि ऐसा दिखना भी चाहिए कि इंसाफ हुआ है. मतलब ये कि रिटायरमेंट के फौरन बाद जजों को सरकारी पद देने से जो सवाल उनके फैसलों पर उठ रहे हैं वह न्यायपालिका की विश्वसनीयता कम तो करते ही हैं. भले ही आरोपों में कोई सच्चाई हो या न हो लेकिन इंसाफ होता दिखने वाली बात इससे जरूर प्रभावित होती है. ऐसे में बीजेपी को खुद अपने दिवंगत नेता अरुण जेटली की बात मान कर कम से कम 2 साल के कूलिंग पीरियड पर विचार करना चाहिए. मतलब ये कि रिटायरमेंट के बाद दो साल तक किसी भी जज को कोई नौकरी या काम या सरकारी पद नहीं मिलना चाहिए.
क्योंकि संविधान के चार स्तंभों में से एक मीडिया तो पहले ही सवालों के घेरे में है. नौकरशाही यानी एक्जिक्यूटिव कि निष्पक्षता तो हमेशा संदेह के दायरे में रहती है. ऐसे में मौजूदा वक्त में एक न्यायपालिका ही है जिसपर लोगों का भरोसा बना हुआ है. इसलिए सरकार के साथ-साथ न्यायाधीशों को भी ये नैतिक जिम्मेदारी उठानी होगी कि वो न सिर्फ न्याय करें बल्कि न्याय करते नज़र भी आएं. रिटायर होने के तुरंत बाद कोई पद ना लें ताकि उनके किसी निर्णय पर या निष्पक्षता पर सवाल खड़े ना हों और सबकी नजरों में उनका सम्मान बना रहे.

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