यात्रा का समापन : परिवर्तन का प्रारंभ. भारत जोड़ो यात्रा के समापन पर ये थी कांग्रेस की टैग लाइन. 7 सितंबर को तमिलनाडु के कन्याकुमारी से शुरू हुई कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा जो 30 जनवरी को कश्मीर के श्रीनगर में खत्म हुई उसका मकसद सिर्फ नफरत के बाज़ार में मुहब्बत की दुकान खोलना बताया गया. 150 दिन की इस यात्रा में कांग्रेसियों ने प्यार और भाईचारे के परचम को थामे रखा. लेकिन सवाल ये है कि क्या इस यात्रा का देश की राजनीति पर कुछ असर हुआ. क्या नफरत के बाज़ार में मुहब्बत की दुकान खुल पाई.
राहुल गांधी के शेर-ए-कश्मीर स्टेडियम के भाषण ने जीता सबका दिल
30 जनवरी को श्रीनगर के शेर-ए-कश्मीर स्टेडियम में कांग्रेस के सांसद और अब कांग्रेसियों की उम्मीद राहुल गांधी ने जिस अंदाज़ में अपने जीवन की कहानी को बयां किया, उससे ये साफ हो गया कि कांग्रेस का युवराज, बीजेपी का पप्पू, बोरिंग भाषण देने वाला राहुल गांधी सच में मर गया है.राहुल गांधी का कश्मीरियों से ये कहना कि इस बार पहाड़ों पर चलकर कश्मीर आना घर आने के जैसा था. वो घर जहां से उनके पुरखों ने गंगा के किनारे पलायन किया था. वो कश्मीरियत जिसे वह अपने साथ ले गए और गंगा के पानी में मिला कर गंगा जमुनी तहज़ीब का नाम दिया. वो इस बार उस कश्मीरियत, इंसानियत और जम्हूरियत की सोच की ओर लौटे हैं.
राहुल का ये बयान कि वो हिंसा के दर्द को समझते हैं, वो जानते हैं कि पुलवामा के शहीदों के बच्चों के दिलों पर क्या बीती होगी जब उन्हें अपने पिता की शहादत की ख़बर मिली होगी. राहुल का ये कहना कि इस हिंसा से पैदा होने वाले दर्द को प्रधानमंत्री मोदी, अमित शाह, अजीत डोभाल नहीं समझ सकते, ये बयान सिर्फ कश्मीरियों के दिल को ही नहीं हर उस दिल को छू गया जिसने हिंसा को झेला है. जिसने मानसिक या शारीरिक हिंसा को धर्म जाति या सम्प्रदाय के नाम पर झेला है या महसूस किया है.
यात्रा से महंगाई, बेरोज़गारी, आर्थिक बदहाली जैसे मुद्दों को मिली आवाज़
राहुल गांधी की यात्रा ने देश के कुछ ऐसे मुद्दों को स्थापित करने में मदद की जिन्हें अब तक सिर्फ विपक्ष का देश को बदनाम करने वाला एजेंडा कहा जा रहा था. महंगाई, बेरोज़गारी, आर्थिक बदहाली, बिकते हुए देश के संसाधन, देश पर बढ़ता कर्ज, चरमराती शिक्षा व्यवस्था, आर्थिक और सामाजिक असमानता और इन सबको ढंक देने वाली वो नफरत, जिसके बाज़ार में राहुल गांधी मुहब्बत की दुकान खोलने निकले थे.
देश की राजनीति में अतीत के गौरव और भगवान राम के नाम पर जिस तरह से आर्थिक तंगी और बदहाली जैसे मुद्दों को हाशिए पर धकेल दिया था. कांग्रेस की इस यात्रा ने उन मुद्दों को एक आवाज़ दी है. प्रधानमंत्री मोदी के करिश्माई व्यक्तित्व के सामने एक साधारण, कमज़ोर व्यक्तित्व की छवि वाले राहुल गांधी को खड़ा करने में मदद की है. यात्रा ने कांग्रेसियों के आत्मविश्वास को भी बढ़ाया है. भारत की राजनीति में पावर ऑफ कॉमन मैन की सोच को फिर लौटाया है.
कांग्रेस और कांग्रेसियों के लिए यात्रा ने बेशक च्यवनप्राश का काम किया है लेकिन क्या बीजेपी और देश की राजनीति को कांग्रेस के इस बूस्टर डोज से कुछ फर्क पड़ा है. इसके साथ ही एक सवाल ये भी उठता है कि क्या इस साल 9 राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव और 2024 लोकसभा चुनावों में कांग्रेस के इस बूस्टर डोज का असर दिखेगा. इस सवाल का जवाब खुद कांग्रेस ने दिया भी है. कांग्रेस मानती है कि एक यात्रा से चुनावी राजनीति पर शायद ही ज्यादा असर पड़े लेकिन चुनावी मुद्दों पर ज़रूर इसका असर नज़र आएगा. कांग्रेस के इस दावे में दम भी है.
अल्पसंख्यकों के लिए नरम पड़े पीएम मोदी के स्वर
पिछले दिनों दिल्ली में बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में प्रधानमंत्री का कार्यकर्ताओं को चुनावी मंत्र के तौर पर ये कहना कि कार्यकर्ताओं को सभी धर्मों और जातियों को साथ लेकर चलने के साथ ही यूनिवर्सिटी और चर्च भी जाना चाहिए. कार्यकर्ताओं को एक भारत, श्रेष्ठ भारत के वादे को याद दिलाना और कहना कि सभी भाषाओं और संस्कृतियों का भी सम्मान करें. मुस्लिम समाज के बारे में गलत बयानबाजी न करें. खासकर अमर्यादित बयानों से दूर रहें. किसी भी जाति-संप्रदाय के खिलाफ बयानबाजी न करें.
इसके साथ ही प्रधानमंत्री का कार्यकर्ताओं से अपील करना कि वो पासमांदा मुस्लिमों और बोहरा समुदाय से मिलें. पढ़े-लिखे और प्रोफेशनल मुस्लिमों से भी बात करें. वोट की अपेक्षा के बिना संवाद कायम करें. बीजेपी के बदले सुर कांग्रेस के मुद्दे बदलने के दावे का समर्थन करता है. इसके साथ ही हाल में पीएम का सूफी सम्मेलन में शामिल होना और वहां ये बयान देना कि इस्लाम का असली मतलब ही अमन है और अल्लाह के 99 नामों में से किसी का अर्थ हिंसा नहीं है. मतलब ये कि कपड़ों से लोगों की पहचान करने वाली सरकार के रुख में बदलाव तो दिख रहा है.
मोहब्बत की ताकत को बीजेपी ने माना
इसके साथ ही संसद में विपक्ष को सिरे से नकार देने वाली सरकार अगर बजट सत्र से पहले तकरार और तक़रीर की बात करने लगे तो ये बताता है कि बीजेपी मुहब्बत की ताकत को समझने लगी है. शायद उसे अंदाज़ा होने लगा है कि लाठी से ज्यादा ताकतवर है मुहब्बत की ज़ुबान. इसलिए सिर्फ मुसलमानों के प्रति ही नहीं बीजेपी ईसाइयों और सिखों के प्रति भी अपने रुख में बदलाव करती नज़र आ रही है.
बीजेपी के किसान आंदोलन को कुचलने की कोशिश के चलते देश-विदेश में जिस तरह खालिस्तानी सोच को बढ़ावा दिया उसे इस बार बिजनेसमैन दर्शन धालीवाल को प्रवासी भारतीय सम्मान से नवाज़ कर सुधारने की कोशिश करना. धालीवाल का ये दावा करना कि प्रधानमंत्री मोदी ने 150 लोगों के सामने मुझसे माफी मांगी और उन्होंने कहा कि ‘हमसे बड़ी गलती हो गई, आपको एयरपोर्ट से वापस भेज दिया, पर आपका बहुत बड़ा बड़प्पन है जो आप हमारे कहने पर फिर भी आ गए.” ऐसे उदाहरण हैं जो बीजेपी की सोच में बदलाव की ओर इशारा करते हैं.
यात्रा ने बदले देश के मुद्दे?
फिलहाल ये कहना तो जल्दबाजी होगी कि बीजेपी ने मान लिया है कि राष्ट्रवाद और हिंदुत्व का असर खत्म हो गया है. हां ये कहा जा सकता है कि बीजेपी को ये अंदाज़ा ज़रूर हो गया है कि अब सिर्फ हिंदू-मुस्लिम करने से महंगाई, बेरोज़गारी और अर्थव्यवस्था की परेशानियों को छिपाया नहीं जा सकेगा. तिलक-तलवार और गौरव की गाथाएं, रोटी की जरूरत को पूरा नहीं कर पाएंगी. हो सकता है कि 2024 आते-आते देश की राजनीति में नफरत कि चिंगारियों पर महंगाई, बेरोज़गारी, गंगा-जमुनी तहज़ीब जैसे मुद्दों का पानी बरसने लगे.