Friday, January 3, 2025

बिहार के गोपालगंज में ऊंची जाति की दबंगई, दलित परिवार को गांव से निकाला

बिहार के गोपालगंज जिले दलित परिवार पर जुल्म की खबर है. मामला गोपालपुर थाना क्षेत्र के विक्रमपुर गांव का है. बताया जा रहा है कि यहां का एक परिवार गोपालगंज कचहरी में रहने को मजबूर है. उनका दोष सिर्फ इतना है कि वो महादलित है और गांववालों को उनके रहने से छुआछूत की दिक्कत होती है.

दलित परिवार को गांव से निकाला
विक्रमपुर गांव में राजबली बासफोर जो डोम जाती से आते है और बासफोर जाति के कई दूसरे लोग लंबे समय से रह रहे हैं. लेकिन अब गांववालों को इनके रहने से परेशानी होने लगी है. राजबली बासफोर का आरोप हे कि गांववालों ने उन्हें और उनके परिवार को मारपीट और गांव छोड़ने का फैसला सुना दिया है. गांववालों का कहना है कि इन लोगों के यहां होने की वजह से उनके निकट संबंधी यहां नहीं आते क्योंकि उनको छुआछूत का डर रहता है. आपको बता दें ये परिवार बांस का सूप और अन्य सामान बनाकर अपना गुज़र बसर करते हैं.
प्रशासन अगर कुछ नहीं करेगा तो आत्महत्या कर लेंगे-परिवार
राजबली बासफोर का कहना है कि गांव के कुछ दबंग लोगों के खिलाफ उन्होंने स्थानीय थाना गोपालपुर में शिकायत भी लेकिन पुलिस ने मामले का संज्ञान नहीं लिया जिसके बाद उनको मजबूरन पूरे परिवार के साथ गोपालगंज कचहरी में शरण लेनी पड़ी. हालत ये है कि परिवार भूखा प्यासा छोटे बच्चों के साथ कचहरी में दिन-रात गुजार रहा है. लेकिन प्रशासन की तरफ से उसकी मदद के लिए कोई सामने नहीं आ रहा है. उनका कहना है कि अगर पुलिस प्रशासन उनकी मदद नहीं करेगा तो वो घर नहीं लौट पाएंगे और ऐसे में उनके सामने आत्महत्या ही एक मात्र विकल्प होगा.

बीजेपी ने साधा महा गठबंधन सरकार पर निशाना
इस मामले की खबर लगने पर बिहार के पूर्व खान एवं भूतत्व मंत्री जनक राम ने महा गठबंधन सरकार की कड़ी आलोचना कि उन्होंने कहा कि जिला प्रशासन ने इस बात का संज्ञान लिया है ये अच्छी बात है. लेकिन सरकार ऐसे मामलों में क्या कर रही है बताए.

ये ख़बर उस समय सामने आई है जब देश में EWS आरक्षण को लेकर बहस हो रही है. कई सामाजिक कार्यकर्ता और जानकारों की दलील रही है कि आरक्षण सामाजिक आधार पर मिलना चाहिए न की आर्थिक आधार पर. और गोपालगंज की ये घटना एक बार उस दलील को मजबूत करती है. इसके साथ ही ये सरकार और प्रशासन के उदासीन रवैये पर भी सवाल खड़े करती है जो गरीब और पिछड़ी जाती को सिर्फ वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करते है और न उनके आर्थिक न सामाजिक उत्थान के लिए कुछ पुख्ता कदम उठाते हैं.

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