लखनऊ से कुछ किलोमीटर दूर मल्हौर रेलवे क्रॉसिंग पर पहुँचने वाले लोग एक बार हैरान जरूर होते है. क्रासिंग पर भारी लीवर और पहिला घुमाती एक महिला कर्मी को देख उनका दिल तारीफ किए बगैर नहीं रह पाता. कई लोग तो इस बहादुर महिला के साथ सेल्फी भी लेने लगते है.
29 वर्ष की मिर्जा सलमा बेग पिछले 10 साल से इसी तरह लोगों के कौतूहल का विषय बनी हुई है. 19 साल की सलमा ने जब 2013 में देश की पहली गेट वुमन की हैसियत से नियुक्ति पत्र हासिल किया था तब ये नौकरी उनके लिए आसान नहीं थी. देश की पहली गेट वुमन रिश्तेदारों से लेकर समाज तक के विरोध का सामना करना पड़ा था. मिर्जा सलमा बेग की ये कहानी हमारे साथ साझा करने के लिए हम आवाज़ द वाइसhttps://www.awazthevoice.in/ के शुक्रगुज़ार है. ये साइट खासकर मुस्लिम समाज से जुड़ी सकारात्मक कहानियां अपने पाठक तक पहुंचाती है.
सलमा से पहले क्यों नहीं थी कोई गेट वुमन
सलमा को जब 2013 में रेलवे की गेट वुमन की नौकरी मिली तब अखबारों में खबर छपी, सवाल उठा की सलमा को गेट वुमन की नौकरी कैसे मिली. तबतक ये काम आम तौर पर मर्द ही करते थे. विवाद इतना बढ़ा कि रेलवे को सफाई देनी पड़ी. रेलवे अधिकारियों तब साफ किया कि गेट पर कोई भी काम कर सकता है. ये नियुक्ति हमेशा से महिला और पुरुष दोनों के लिए हमेशा से खुली थी. लेकिन महिलाएं खुद इस नौकरी के लिए आगे नहीं आती थी.
सलमा ने गेट वुमन बनने का कैसे सोचा
सलमा के लिए गेट वुमन बनना कोई सपना नहीं था. घर के हालात और पिता की बीमारी ने सलमा को गेट वुमन बना दिया. सलमा के पिता मिर्जा सलीम बेग एक रेलवे क्रॉसिंग पर गेटमैन थे. घर के अकेले कमाने वाले सलीम बेग को कम सुनने और दूसरी बीमारियों की वजह से वक्त से पहले स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेनी पड़ी. नौकरी छोड़ी तो रेलवे ने बेटी को बदले में नौकरी का ऑफर कर दिया.
घर के अकेले कमाने वाले पिता की बीमारी और लकवाग्रस्त मां की जिम्मेदारी दोनों सलमा पर आ गई. ऐसे में रेलवे की नौकरी उनके लिए डुबते को तिनके के सहारे जैसी लगीं. सलमा ने तब पढ़ाई छोड़ नौकरी का फैसला लिया. उस वक्त भले ही ये नौकरी सलमा की मजबूरी थी लेकिन आज नौकरी के 10 साल बाद उन्हें अपनी नौकरी पर नाज़ है.
रिश्तेदारों और सहकर्मियों ने शुरु में नहीं दिया साथ
आज सलमा एक बच्चे की मां हैं उनका अपना परिवार है और रेलवे में उनके सहयोगी हर वक्त उनकी मदद के लिए तैयार हैं. लेकिन ऐसा शुरु से नहीं था. जब 19 साल की सलमा ने रेलवे फाटक पर गेट वुमन बनने का फैसला किया तो उनके रिश्तेदार इस फैसले से नाराज़ थे. उनके परिवार ने उनका साथ जरूर दिया लेकिन सलमा को समाज और सहकर्मियों की नाराजगी का सामना करना पड़ा.
सहकर्मियों को यकीन था कि 4 दिन भी नौकरी नहीं कर पाएगी सलमा
मल्हौर रेलवे क्रॉसिंग एक बहुत व्यस्त क्रॉसिंग है. इस रुट पर हर दम ट्रेनों की आवाजाही लगी रहती है. हर बार जब ट्रेन क्रॉसिंग पर आती तो सलमा को गेट बंद करने के लिए लीवर के साथ एक भारी पहिया चलाना पड़ता है और ट्रेन के गुजरते ही वो गेट खोल देती हैं. ये दोनों ही काम बड़ी सावधानी से करने होते है ताकि किसी को चोट न लगे. जब तक ट्रेन गेट को पूरी तरह से पार नहीं करती, सलमा वह लाल और हरे झंडों को हाथ में लिए वहीं खड़ी रहती
सलमा बताती है कि जब पहली बार उन्होंने क्रॉसिंग पर काम करना शुरू किया, तब साथी स्टाफ ने कहा था कि सलमा 4 दिन में नौकरी छोड़ देंगी. एक लड़की होने की वजह से गेट खोलना और बंद करना उनके लिए आसान नहीं होगा. वो हर दम आती ट्रेनों के बीच काम नहीं कर पाएंगी. सलमा बताती है कि आज 10 साल बाद वो ही स्टाफ उनका सबसे बड़ा सपोर्ट है. सलमा का मानना है कि लड़कियों को आर्थिक आज़ादी मिलनी चाहिए उन्हें ग्रहणी के रुप में ही कैद नहीं करना चाहिए. सलमा कहती है भविष्य में क्या है किसी को नहीं पता. इसलिए आर्थिक स्वतंत्रता जरूरी है.
मिर्जा सलमा बेग की ये प्रेरणादायक कहानी सिर्फ मुस्लिम समाज के लिए ही नहीं बल्कि सभी महिलाओं के लिए आर्थिक स्वतंत्रता का पैगाम देती है. ऐसी सकारात्मक कहानियां आप तक पहुंचाने में हमारी मदद करने के लिए हम https://www.awazthevoice.in/आवाज़ द वाइस का धन्यवाद देते है.