आपने वो कहावत तो सुनी होगी एक झूठ को बार-बार बोला जाए तो वो सच साबित हो जाता है. अगर इस कहावत पर कोई सबसे ज्यादा विश्वास करता है तो वो है सोशल मीडिया. हर रोज़ एक नया ट्रेंड…..फिर चाहे वो सच हो झूठ हो….नफरती हो…समाज को नुकसान पहुंचाने वाला हो….असभ्य हो, इससे इन प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल करने वालों को कोई फर्क नहीं पड़ता. ऐसा ही एक झूठ कई सालों से सोशल मीडिया पर चल रहा है. झूठ ये है कि 1965 की भारत-पाकिस्तान जंग में भारतीय फौज की एक टुकड़ी ने पाकिस्तान के खिलाफ जंग लड़ने से इनकार कर दिया था.
एक अफवाह जो लगातार कर रहा है ट्रेंड
पहले 2017 फिर 2020 और अब 2023…..एक झूठ लगातार सोशल मीडिया की सुर्खियों में बना हुआ है. इस झूठे ट्रेंड में ये कहा जाता है कि भारतीय सेना की मुस्लिम रेजिमेंट ने पाकिस्तान के साथ भारत के 1965 के युद्ध में लड़ने से इनकार कर दिया था. इस जानकारी के साथ एक सवाल भी जुड़ा होता है. सवाल ये कि क्या ऐसी कौम जो अपने देश के लिए लड़ने से इनकार कर दे वो आईएएस या आईपीएस अधिकारी बनने के बाद देश की सेवा कर पाएगी. यानी पोस्ट का मकसद राष्ट्र के प्रति मुसलमानों की वफादारी और देश के उच्च प्रशासनिक पदों पर रहकर मुसलमानों की सेवा की क्षमता पर सवाल उठाना है. इस पोस्ट को साल दर साल दक्षिणपंथी सोशल मीडिया ग्रुप और दक्षिणपंथी विचारधारा रखने वाले सोशल मीडिया हैंडल्स से शेयर किया जाता है.
1965 युद्ध में मुसलिम रेजिमेंट ने लड़ने से किया था इनकार ?
हलांकि 2020 में जब ये झूठा प्रचार शुरु हुआ तो कुछ फैक्ट चैकिंग साइट्स ने इस झूठ का पर्दाफाश भी किया. टाइम्स ऑफ इंडिया की फैक्ट चैकिंग साइट ने लिखा, ब्रिटिश काल में भारतीय सेना धर्म के आधार पर नहीं, जाति के आधार पर विभाजित थी. राजपूत, कुरैशी और पठान जैसी जातियों को मार्शल जातियाँ माना जाता था, अर्थात; लड़ाकू जातियाँ. बाकी को गैर-मार्शल जाति माना जाता था. 1857 की क्रांति से पहले अंग्रेज भारतीय सेना में मार्शल यानी लड़ाकू जातियों को प्राथमिकता देते थे. 1857 के विद्रोह के बाद, अंग्रेजों ने उन जातियों की भर्ती शुरू की जो विद्रोह को दबाने में उनका समर्थन करती थीं.
1965 में नहीं थी कोई मुसलिम रेजिमेंट
फैक्ट चेक के बाद जब ये साफ हो गया कि अंग्रेजों के समय धर्म के आधार पर सेना की टुकड़ियां ही नहीं थी तो सवाल ये उठा कि क्या आज़ादी के बाद ऐसा था. इसके साथ ही सवाल ये भी था कि, क्या युद्ध के दौरान भारतीय मुसलमानों ने भारत का समर्थन नहीं किया? तो फैक्ट चेकिंग साइट्स इसका भी खंडन करती है.
1965 में मुसलमानों ने बढ़चढ़ कर युद्ध में हिस्सा लिया
उनके अनुसार फेक न्यूज के विपरीत भारतीय मुसलमानों के ऐसे मामले थे जिन्होंने न केवल पाकिस्तान के खिलाफ आजादी के बाद के युद्ध में लड़ाई लड़ी बल्कि वीरता पुरस्कार भी जीते. उदाहरण के लिए, जनरल अब्दुल हमीद को 1965 के युद्ध में उनके अमूल्य योगदान के लिए मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया था. इसी लड़ाई में मेजर मोहम्मद जकी और मेजर अब्दुल राफे खान ने भी वीर चक्र जीता था. द टाइम्स ऑफ इंडिया के मुताबिक, राफे खान ने मरणोपरांत पुरस्कार जीता क्योंकि उन्होंने अपने चाचा मेजर जनरल साहिबजादा याकूब खान की कमान वाली पाकिस्तानी डिवीजन से लड़ाई लड़ी थी. टाइम्स ऑफ इंडिया लिखता है कि “1965 में कभी भी और निश्चित रूप से कोई मुस्लिम रेजिमेंट नहीं थी. लेकिन अलग अलग रेजिमेंट का हिस्सा बन कर जंग में लड़ने वाले मुसलमानों ने न केवल पूरी प्रतिबद्धता से जंग लड़ी बल्की देश के लिए खुद को अमूल्य भी साबित किया.”
फिर सवाल ये उठता है कि इस झूठ की शुरुआत कैसे हुई. तो टाइम्स ऑफ इंडिया अपने आर्टिकल में 30 नवंबर, 2017 में लिखे गए एक ब्लॉग जिसे रिटा. लेफ्टिनेंट जनरल सैयद अता हसनैन ने लिखा है, इस ब्लॉग का शीर्षक है ‘द मिसिंग’ मुस्लिम रेजीमेंट: विदाउट कम्प्रेहैन्सिव रिबटल. ये ब्लॉग कहता है कि ये झूठा प्रचार दरअसल पाकिस्तानी प्रोपेगेंडा था जिसे भारत को नुकसान पहुंचाने के मकसद से फैलाया गया था. आपको बता दें कि लेफ्टिनेंट जनरल सैयद अता हसनैन ने 1974-2013 के बीच भारतीय सेना में सेवा दी थी.
ब्लॉग के अनुसार 1965 में कभी भी और निश्चित रूप से उसके बाद भी कोई मुस्लिम रेजिमेंट नहीं थी.
पाकिस्तानी (ISPR) दुष्प्रचार यह कहता है कि 1965 तक भारतीय सेना में एक मुस्लिम रेजिमेंट मौजूद थी. लेकिन उसे भंग कर दिया गया था क्योंकि उस संघर्ष में 20,000 मुसलमानों ने पाकिस्तान के खिलाफ लड़ने से इनकार कर दिया था.
कैसे पाकिस्तानी प्रोपेगेंडा को आगे बढ़ा रहे हैं राष्ट्रवादी
यानी ये तो साफ है कि दुश्मन यानी पाकिस्तान भारत देश की शांति और एकता को नुकसान पहुंचाने के मकसद से ये प्रचार कर रहा था. लेकिन 2017 के बाद जो सोशल मीडिया पर ये फेक न्यूज ट्रेंड करा रहे हैं. जो खुद को राष्ट्रवादी कहते हैं वो कैसे इस झूठ में शामिल हो गए. कैसे उन्होंने दुश्मन की चाल को नाकामयाब करने के बजाए उसका हिस्सा बन कर देश की एकता को नुकसान पहुंचाने का फैसला किया.
वैसे कहते हैं न प्यार और नफरत दोनों इंसान को अंधा कर देती है. इस मामले में तथाकथित राष्ट्रवादियों के साथ ऐसा ही हुआ. उनकी एक धर्म से नफरत इतनी बढ़ गई कि वो दुश्मन के प्रोपेगेंडा का शिकार होकर खुद देश का नुकसान करने लगे. शायद इसी लिए कहा गया है कि एक समझदार दुश्मन एक नासमझ दोस्त से ज्यादा बेहतर होता है.
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