31 अक्तूबर से सुप्रीम कोर्ट में एक अहम मामले की सुनवाई चल रही है. ये सुनवाई चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया डीवाई चंद्रचूड़ , जस्टिस संजीव खन्ना, बीआर गवई, जेबी पारदीवाला और मनोज मिश्रा की पीठ कर रही है. 2017 में एक वित्त विधेयक के माध्यम से पेश किये गए चुनावी बांड को लेकर हो रही इस सुनवाई के दौरान कोर्ट ने चुनाव आयोग से राजनीतिक दलों के चुनावी बांड फंडिंग का डेटा तैयार रखने के लिए कहा है. यानी कोर्ट ये देखेगा कि चुनावी बांड या इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए सत्ताधारी पक्ष को कितना और कैसा फायदा पहुंचा है.
चुनावी चंदे का स्रोत जानना नागरिकों का अधिकार नहीं-सरकार
सोमवार यानी 30 अक्तूबर को सुप्रीम कोर्ट में चुनावी बांड यानी इलेक्टोरल बॉन्ड योजना की वैधता का बचाव करते हुए केंद्र सरकार ने कहा कि भारत के नागरिकों के पास ये मौलिक अधिकार नहीं हैं कि राजनीतिक फंडिंग के स्रोतों के बारे में उन्हें जानकारी दी जाए. केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में न्यायिक समीक्षा पर ही सवाल उठाते हुए कहा कि, न्यायिक समीक्षा का मकसद बेहतर या अलग नुस्खे सुझाना और राज्य की नीतियों को स्कैन करना नहीं होता है. सरकार ने कोर्ट में दायर किए चार पन्नों की लिखित एफिडेविट में कहा कि “ चूंकि चुनावी बॉन्ड tax liability का पालन सुनिश्चित करता है और इससे किसी भी मौजूदा अधिकार का उल्लंघन नहीं होता है. इसलिए एक संवैधानिक अदालत इसकी समीक्षा नहीं कर सकती है.”
चुनावी बांड की समीक्षा से बचना चाहती है सरकार
यानी साफ है कि सरकार कोर्ट में चुनावी बांड की समीक्षा से बचना चाहती है. अब सवाल ये है कि सरकार ऐसा क्यों चाहती है. तो इसकी एक वजह ये बताई जा रही है कि चुनावी बांड प्रणाली कॉर्पोरेट्स को राजनीतिक दलों को गुमनाम तरीके से कितनी भी बड़ी मात्रा में धन दान करने की अनुमति देती है, जिससे यह चिंता बढ़ जाती है कि रुलिंग पार्टी कॉर्पोरेट के इस धन के बदले उसके अनुकूल नीति बनाकर ये एहसान उतारने का काम करेगी.
चुनाव आयोग ने अनियंत्रित विदेशी फंडिंग को लेकर किया था चुनावी बॉन्ड का विरोध
इतना ही नहीं विदेशी फंडिंग को लेकर खुद चुनाव आयोग भी इस योजना का विरोध कर चुका है. चुनाव आयोग ने ये चेतावनी दी कि भारतीय कंपनियों में Major share वाली विदेशी कंपनियों को अनुमति देने से “भारत में राजनीतिक दलों को अनियंत्रित विदेशी फंडिंग (uncontrolled foreign funding) की अनुमति मिल जाएगी, जिससे भारतीय नीतियां विदेशी कंपनियों से प्रभावित हो सकती हैं.” हलांकि तब सरकार ने इन चिंताओं को ये कहकर खारिज कर दिया था कि पहले वाली व्यवस्था के तहत फंडिंग का एक बड़ा हिस्सा कैश के रूप में था, जिससे राजनीतिक फंडिंग में “ब्लैक मनी का अनकंट्रोल्ड फ्लो” होता था.
आरबीआई ने शेल कंपनियों के उपयोग को लेकर दी थी चेतावनी
सिर्फ चुनाव आयोग ने ही नहीं सरकार की इस योजना पर आरबीआई ने भी आपत्ति जताई थी. तब के आरबीआई गवर्नर ऊर्जित पटेल ने 14 सितंबर, 2017 को वित्त मंत्री जेटली को पत्र लिखा था कि “हम चिंतित हैं कि वर्तमान में इलेक्टोरल बॉन्ड के मुद्दे का दुरुपयोग होने की संभावना है, विशेष रूप से शेल कंपनियों के उपयोग के माध्यम से.” यानी चुनाव आयोग, आरबीआई सब इस स्कीम के खिलाफ थे. तो फिर सरकार इसपर क्यों अड़ी थी. दो आंकड़ों से ये साफ हो जाएगा कि चुनावी बॉन्ड को लेकर सरकार इतना अड़ियल रवैया क्यों अपना रही है.
चुनावी बॉन्ड से किसको कितना मिला पैसा
एडीआर यानी एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के आंकड़ों के अनुसार, चुनावी बांड के माध्यम से 2021-22 तक सभी राजनीतिक दलों को मिलाकर 9,188 करोड़ रुपये से अधिक का दान दिया गया, जिसमें से अकेले बीजेपी को 57% से अधिक मिला, जबकि कांग्रेस को 10% मिला था. यानी 9,188 करोड़ में से बीजेपी को 5,272 करोड़ रुपये और कांग्रेस को 952 करोड़ रुपये मिले थे. जबकि टीएमसी को 767 करोड़ रुपये, एनसीपी को 63 करोड़ रुपये और आप को 48 करोड़ रुपये मिले. जबकि 2017-18 में चुनावी बॉन्ड का 94.5 प्रतिशत हिस्सा बीजेपी का था.ये जानकारी खुद बीजेपी की ऑडिट और आयकर रिपोर्ट के माध्यम से चुनाव आयोग को दी गई थी.
चाइनीज़ कंपनियां भी दे रही हैं चुनावी चंदा
आकड़ों की ये बाजीगरी ही बीजेपी की चिंता का विषय है. क्यों चुनावी बॉन्ड के जरिए भारत की राजनीति में विदेशी जिसमें खास कर चाइनीज़ कम्पनियां शामिल हैं उनका पैसा भी पहुंच रहा है. ऐसे में अगर ये खुलासा हो गया कि किसको किस विदेशी कंपनी से कितना पैसा किस पार्टी को मिला तो सबसे बड़ा राष्ट्रवादी कौन का जो खेल चल रहा है उसका भी खुलासा हो जाएगा.