राजनीति में हार का सामना कर ज़ीरो साबित होने के बाद आज़म खान अदालत में जीत गए. रामपुर के एमपी-एमएलए कोर्ट ने हेट स्पीच मामले में आजम खान को बरी कर दिया है. इसी मामले में निचली अदालत ने आजम खान को तीन साल की सजा सुनाई थी, जिसके बाद उनकी विधायकी चली गई थी.
सदस्यता रद्द करने में दिखाई गई जल्दबाज़ी
27 अक्तूबर 2022 को रामपुर की एक निचली अदालत ने 2019 के एक मामले में आज़म खान को तीन साल की सज़ा सुनाई. मामला हेट स्पीच का था. आरोप था कि आज़म खान ने पीएम और सीएम को अपशब्द कहे. इधर 27 अक्तूबर को फैसला आया और उधर 28 अक्तूबर को विधानसभा की सदस्यता रद्द हो गई. इधर सीट खाली हुई उधर 15 दिन के अंदर यानी 10 नवंबर को ही खाली सीट पर चुनाव की घोषणा कर दी गई. 5 दिसंबर को वोट पड़े और 8 दिसंबर को नतीजा भी आ गया. जिस सीट से 2022 में ही आज़म खान ने जीत दर्ज की थी उसी सीट से बीजेपी नेता आकाश सक्सेना विधायक हो गए.
हमें झूठा फंसाया गया था -आज़म खान के वकील
इस बीच आज़म खान ने सुप्रीम कोर्ट से लेकर हाई कोर्ट तक का दरवाज़ा खटखटाया लेकिन राहत नहीं मिली. यानी राजनीति की जिस ज़मीन को आज़म खान ने 30 साल से सींचा था वो निचली अदालत के ग़लत फैसले की भेंट चढ़ गई. गलत फैसला इसलिए क्योंकि रामपुर के एमपी-एमएलए कोर्ट ने आज़म खान की सज़ा कम नहीं की बल्कि उन्हें मामले में दोष मुक्त यानी बरी कर दिया है. आजम खान के वकील विनोद शर्मा ने बताया है कि निचली अदालत का फैसला गलत था और हेट स्पीच मामले में बाइज्जत बरी कर दिया गया है. उन्होंने कहा, अभियोजन पक्ष केस नहीं साबित कर पाया, जाहिर तौर पर हमें झूठा फंसाया गया था. अब हमें दोषमुक्त कर दिया गया है.
यानी गलती निचली अदालत की और सजा आज़म खान को मिली. वैसे आज़म खान की विधायकी खत्म करने के मामले में तो सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश विधानसभा सचिवालय से पूछा भी था कि सदस्यता रद्द करने की इतनी जल्दी क्या है.
अब्दुल्ला आज़म के मामले में भी लिए गया फटाफट फैसला
वैसे आज़म खान ऐसे अकेले नहीं हैं. आज़म खान के बेटे अब्दुल्ला आज़म की विधायकी भी एक ऐसे ही मामले में गई. अब्दुल्ला को साल 2008 के एक मामले में मुरादाबाद के स्पेशल एमपी एमएलए कोर्ट में 2 साल की सज़ा सुनाई. इस मामले में आज़म खान भी आरोपी थे उन्हें भी 2 साल की सज़ा सुनाई गई लेकिन इस मामले में बाकी आरोपी अमरोहा के एसपी विधायक महबूब अली, पूर्व एसपी विधायक हाजी इकराम कुरैशी (अब कांग्रेस में), बिजनौर के एसपी नेता मनोज पारस, एसपी नेता डीपी यादव, एसपी नेता राजेश यादव और एसपी नेता रामकुंवर प्रजापति सभी निर्दोष करार दे दिए गए.
आज़म और उनके बेटे पर 29 जनवरी 2008 को मामला दर्ज हुआ था. छजलैट पुलिस ने एसपी के पूर्व मंत्री आजम खान की कार को चेकिंग के लिए रोका था. इस बात से नाराज़ एसपी नेता आजम खान सड़क पर बैठ गए थे. पुलिस ने तब आजम खान और उनके साथियों पर सड़क जाम करने और सरकारी कार्य में बाधा डालने, भीड़ को उकसाने के आरोप लगा मामला दर्ज किया था. यानी मामला उतना संगीन नहीं था लेकिन सज़ा सुनाए जाने के बाद इस मामले में भी काफी तेज़ी दिखाई गई. 14 फरवरी को फैसला आया 15 फरवरी को सदस्यता रद्द कर दी गई. 13 मई को स्वार की अपनी सीट से अब्दुल्ला अगले चुनाव तक हाथ भी धो बैठे क्योंकि वहां के चुनाव में बीजेपी समर्थित अपना दल के प्रत्याशी ने सीट जीत ली.
राहुल गांधी ने कहा अगर फैसले में देर हुई तो वायनाड में हो जाएगा चुनाव
ऐसा ही मामला कांग्रेस के पूर्व सांसद राहुल गांधी का भी है. उन्हें भी सूरत की एक अदालत के फैसले पर संसद सदस्यता गंवानी पड़ी. इसी तरह के एक के बाद एक कई ऐसे मामले देखने को मिले. एक मामले में तो लक्षद्वीप से एनसीपी सांसद मोहम्मद फैजल की सदस्यता सुप्रीम कोर्ट के हाई कोर्ट के फैसले पर रोक लगाने के बाद वापस तक करनी पड़ी. राहुल गांधी भी इसी दलील के साथ गुजरात हाई कोर्ट गए हैं कि उनके खिलाफ गलत फैसला दिया गया है और अगर ऊपरी अदालत जल्द सुनवाई कर उन्हें दोषमुक्त नहीं करेगी तो उनके संसदीय क्षेत्र में चुनाव करा दिए जाएंगे.
यानी कुल मिला कर कहें तो अपील के रास्ते खुले होने के बावजूद न सिर्फ विधानसभा और संसद सदस्यों को अपनी सदस्यता गंवानी पड़ी बल्कि उनकी सीट पर चुनाव भी हो गए जिससे उनकी इतने साल की राजनीतिक मेहनत बरबाद हो गई.
जन प्रतिनिधि कानून का हो रहा है गलत इस्तेमाल?
वैसे जिस जन प्रतिनिधि कानून यानी people’s representation act 1951 के तहत इन सभी की सदस्यता गई उसका इस्तेमाल पहली बार तब चर्चा में आया था जब लालू यादव को चारा घोटाले में सजा सुनाई गई थी. तब एक कोशिश भी हुई थी इस कानून में संशोधन कर चोर रास्ता निकालने की. 2013 में UPA सरकार लोकसभा में एक अध्यादेश लेकर आई थी, जिसमें कहा गया था कि कुछ शर्तों के तहत अदालत में दोषी पाये जाने के बावजूद सांसदों की सदस्यता रद्द नहीं होगी लेकिन इस अध्यादेश को राहुल गांधी ने बेतुका करार देते हुए संसद के भीतर ही फाड़ दिया था. उस वक्त राहुल गांधी ने कहा था कि आज अगर हम ऐसे छोटे समझौते करते हैं तो कल हमें बड़े समझौते करने होंगे. हलांकि अब खुद राहुल इस कानून का शिकार हो गए हैं. खास कर राहुल गांधी के मामले में जो हुआ उससे सिर्फ इस कानून ही नहीं बलकि न्यायपालिका पर भी सवाल खड़े हो गए थे. और अब आज़म खान का मामले में दोष मुक्त हो जाना फिर ये सवाल खड़ा कर रहा है कि क्या कानून की आड़ में विपक्ष को निपटाने के लिए इस कानून का इस्तेमाल किया जा रहा है.
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