बीजेपी को अब उनकी ही भाषा में जवाब मिलने लगा है. लोकतंत्र में जो मज़ाक बीजेपी ने चुनाव का बना दिया था आज वो उसको ही भारी पड़ने लगा है. बीजेपी विरोधी टिपरा मोथा चीफ प्रद्योत माणिक्य देबबर्मा की इस बात से खुश हो सकते है कि वो अपना महल का हिस्सा बेच चुनाव बाद बहुमत पाने के लिए बीजेपी के विधायक खरीदेंगे, लेकिन क्या आपने सोचा है सबसे बड़े लोकतंत्र के जिस दावे पर हम गर्व करते है उसकी सेहत के लिए ऐसे बयान का क्या मतलब है.
बीजेपी वालों को भी खरीदा जा सकता है- प्रद्योत किशोर
16 फरवरी को त्रिपुरा विधानसभा के लिए मतदान हुआ. इस बार त्रिपुरा में त्रिकोणीय मुकाबला होने की बात कही जा रही है. सभी दल जीतने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं लेकिन हम बात कर रहे हैं मतदान के बीच आए टिपरा मोथा चीफ प्रद्योत माणिक्य देबबर्मा के बयान की. टिपरा मोथा पार्टी के चीफ ने दावा किया है कि वह बीजेपी के 25 से 30 विधायक खरीदने के बारे में सोच रहे हैं. प्रद्योत देबबर्मा ने कहा कि केवल उनकी पार्टी (टिपरा मोथा) ही सत्तारूढ़ बीजेपी (BJP) के खिलाफ लड़ाई लड़ रही है. उन्होंने कहा कि अगर उनकी पार्टी त्रिपुरा चुनावों में स्पष्ट बहुमत हासिल करने में विफल रहती है तो वह बीजेपी विधायकों को “खरीदने” के बारे में सोच रहे हैं.
प्रद्योत देबबर्मा से चुनाव के बाद गठबंधन और खरीद-फरोख्त के बारे में पूछे जाने पर देबबर्मा ने कहा कि अगर हमें यानी टिपरा मोथा को 30 से कम सीटें मिलती है तो वह अपने महल के कुछ हिस्सों को बेचकर बीजेपी के 25-30 विधायकों को खरीदने के बारे में सोच रहे हैं. उन्होंने कहा कि उनके पास पैसा ही पैसा है. ऐसा क्यों माना जाता है कि केवल बाकी दलों के विधायक बिकाऊ हैं? सिर्फ हम पर ही सवाल क्यों उठाए जाते हैं? बीजेपी वालों को भी खरीदा जा सकता है. वैसे ये वो ही टिपरा मोथा के अध्यक्ष प्रद्योत किशोर माणिक्य देबबर्मा है जिन्होंने कुछ दिन पहले कहा था कि वह 16 फरवरी को होने वाले विधानसभा चुनाव के बाद राजनीति छोड़ देंगे और कभी भी एक राजा की तरह वोट नहीं मांगेंगे. उन्होंने कहा कि यह निश्चित है कि दो मार्च के बाद वह राजनीति में नहीं होंगे, लेकिन हमेशा अपने लोगों के साथ रहेंगे.
मीडिया कथित विधायक खरीद को बता रहा था बीजेपी की काबिलीयत
दो मार्च के बाद प्रद्योत किशोर माणिक्य देबबर्मा राजनीति में रहें या नहीं रहें लेकिन बीजेपी के विधायकों को खरीदने वाला उनका ये बयान लंबे समय तक याद किया जाएगा. कहावत है कि इश्क, मुश्क और जंग में सब जायज़ है लेकिन 2014 के बाद राजनीति का भी यही हाल हो गया है. हम ये नहीं कहते कि पहले विधायक और सांसदों की खरीद फरोख्त नहीं होती थी लेकिन 2014 के बाद ये सिलसिला ऐसा चल पड़ा की हर चुनाव के बाद बीजेपी की विपक्षी पार्टी अपने विधायकों और सांसदों को सरकार बनने तक छुपाती फिरती है. मध्य प्रदेश, गोवा, महाराष्ट्र में चुनाव के बाद जो खेल हुआ उसका नतीज़ा ये था कि हिमाचल चुनाव में जब कांग्रेस-बीजेपी को बराबर की सीटें मिलती दिख रही थी उस वक्त टीवी डिबेट में बड़ी ही बेशर्मी के साथ ये कहा जा रहा था कि कांग्रेस की सुस्ती गोवा की तरह उसे यहां भी भारी पड़ेगी, बीजेपी के बड़े नेता हिमाचल पहुंचने लगे हैं. बीजेपी अगर बहुमत के आसपास भी पहुंच गई तो वो जोड़-तोड़ कर सरकार बना लेगी. बीजेपी की जोड़-तोड़ को ऐसे पेश किया जा रहा था जैसे जोड़-तोड़ कानूनी हो गई हो…विधायकों का खरीदना और बेचा जाना वैध हो….इतना ही नहीं दिल्ली में आप पार्टी ने भी बीजेपी पर विधायकों को खरीदने ऑपरेशन लोटस चलाने के आरोप लगाए. आम लोगों में भी ये धारणा बन गई है कि बीजेपी या तो चुनाव जीतेगी, नहीं तो विधायक खरीद के सरकार बना लेगी. चुनावी नतीज़ों के दौरान गृहमंत्री अमित शाह को खरीद-फरोख्त में माहिर बताते मीम सोशल मीडिया पर आम हो गए हैं. खुद बीजेपी जिसके नेता और कार्यकर्ता छोटी-छोटी चीज़ों पर आहत हो लोगों को देश द्रोही बता देते हैं लेकिन लोकतंत्र के इस मज़ाक पर कभी नाराज़गी नहीं जताते. चुनाव और चुनाव के बाद विधायकों को मैनेज करना बीजेपी नेताओं की काबीलियतों में गिना जाने लगा है. खास कर मीडिया विपक्ष के नेताओं में इस कमी को उनकी हार की बड़ी वजह बताने लगा है. चुनावों में पैसे की तो बात ही न करें.
पैसे की ताकत से कमज़ोर हुआ लोकतंत्र
नोटबंदी को लेकर एक चर्चा ये आम थी कि उत्तर प्रदेश चुनाव के समय इसे किया गया था ताकि एसपी और बीएसपी का पैसा बेकार हो जाए. इलैक्टोरल बॉन्ड में भी बीजेपी का शेयर 80 प्रतिशत है. ऐसे में एक छोटे से राज्य की छोटी सी पार्टी के नेता का ये कहना कि मैं चुनाव के बाद बीजेपी के विधायक खरीदूंगा. बीजेपी विरोधियों के लिए एक बहादुरी का तमगा हो सकता है लेकिन क्या ये लोकतंत्र के लिए खतरा नहीं है. क्या मज़ाक में भी चुनावी भ्रष्टाचार को स्वीकृति मिलना, लोकतंत्र के कमज़ोर होने का सबूत नहीं है. क्यों नहीं टिपरा मोथा के अध्यक्ष प्रद्योत किशोर माणिक्य देबबर्मा के इस बयान पर उनके खिलाफ एफआईआर होनी चाहिए. क्यों नहीं उन समाचार चैनलों पर कार्रवाई होनी चाहिए जो चुनाव के बाद जोड़-तोड़ और विधायकों की खरीद फरोख्त को किसी पार्टी की काबिलियत के तौर पर देखते हैं. सुरक्षित माने जाने वाले राज्यों के रिज़ॉर्ट में एक पार्टी के विधायकों को ले जाने पर सवाल उठाए जाते हैं. क्या सिर्फ आपराधिक छवि और बाहुबली विधायक ही लोकतंत्र के नाम पर धब्बा हैं…..क्या पैसे के दम पर सरकार बनाने की कोशिश, दबंगई नहीं है.