Sunday, December 22, 2024

Lok Sabha Election 2024: क्या बीजेपी की छापा-गिरफ्तारी नीति से कांग्रेस के नेतृत्व में एकजुट होगा विपक्ष?

विपक्षी एकता पर कांग्रेस के फैसले को लेकर बिहार के सीएम नीतीश का इंतजार लगता है लंबा खिंचने वाला है. नीतीश कुमार ने पटना में सीपीआई एमएल के अधिवेशन में कहा था कि वो कांग्रेस के फैसले का इंतजार कर रहे हैं और अगर विपक्ष एकजुट होकर लड़ेगा तो बीजेपी लोकसभा चुनाव में 100 सीटों से भी कम में सिमट जाएगी.

विपक्षी एकता पर कांग्रेस ने क्या फैसला किया?

कांग्रेस के छत्तीसगढ़ महाधिवेशन के बाद भी 2024 लोकसभा चुनाव को लेकर विपक्ष की रणनीति साफ नहीं हुई है. हां कांग्रेस के महाधिवेशन ये जरूर साफ हो गया है कि कांग्रेस नहीं चाहती है कि कोई तीसरा मोर्चा बने. पार्टी के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा कि 2024 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी से मुकाबला करने के लिए समान विचारधारा वाले धर्मनिरपेक्ष दलों को लामबंद होकर गठबंधन करना चाहिए.

लेकिन खड़गे ने 2004 या 2009 की तरह तीसरा मोर्चा बना कर चुनाव लड़ने की क्षेत्रीय पार्टियों की कोशिश के बारे में कहा कि इससे चुनाव में बीजेपी को मदद ही मिलेगी.

यानी कांग्रेस ने साफ कर दिया कि क्षेत्रीय पार्टियों को अपने नेताओं को प्रधानमंत्री बनाने का सपना छोड़ कांग्रेस पार्टी की छतरी के नीचे आना होगा.

क्या टूट जाएगा केसीआर, नीतीश कुमार और ममता बैनर्जी का पीएम बनने का सपना?

कुल मिलाकर देखें तो कांग्रेस ने बीआरएस जो पहले टीआरएस यानी तेलंगाना राष्ट्रीय समिति थी, उसके अध्यक्ष के चंद्रशेखर राव, बिहार में जेडीयू के नेता और सीएम नीतीश कुमार और त्रिणमूल पार्टी की नेता और बंगाल की सीएम ममता बैनर्जी के प्रधानमंत्री बनने और अपनी अगुवाई में तीसरा मोर्चा बना कर लड़ने के सपने को सिरे से नकार दिया.

आपको याद होगा ममता बैनर्जी, नीतीश कुमार और केसीआर एक-एक बार देश भर में घूमकर अपने लिए समर्थन जुटाने की कोशिश कर चुके हैं. केसीआर ने तो प्रशांत किशोर को भी हायर कर ये काम सौंपा था कि वो उन्हें राष्ट्रीय नेता बना दे. खैर वो तो हो नहीं सका. इसलिए टीआरएस से तेलंगाना को हटा बीआरएस यानी भारत राष्ट्रीय समिति कर ही उन्हें संतुष्ट होना पड़ा.

शरद यादव पहले ही कांग्रेस के बिना किसी भी मोर्चे से इनकार कर चुकें हैं

वैसे कांग्रेस के बिना कोई मोर्चा बनाने के आइडिया को पहले भी शरद पवार जैसे दिग्गज राजनेता नकार चुके थे. उन्होंने तब खुल कर कहा था कि कांग्रेस को किसी वैकल्पिक मोर्चे से बाहर नहीं छोड़ा जा सकता है.

तो क्या कांग्रेस के अधिवेशन के बाद विपक्षी एकता का मुद्दा खत्म हो गया. या फिर ऐसा क्या बदल गया है जिससे कांग्रेस को लगता है कि तीसरे मोर्चे पर अड़े क्षेत्रीय दल उसके नेतृत्व को मान कर एक विपक्षी मोर्चे पर राजी हो जाएंगे.

 

कांग्रेस को क्यों लगता है कि क्षेत्रीय पार्टियां उसका नेतृत्व स्वीकार करेंगी?

अगर ध्यान से देखें तो पिछले एक साल में राष्ट्रीय राजनीति की तस्वीर काफी बदली है. कांग्रेस ने अपनी भारत जोड़ो यात्रा से साबित किया है कि जनता अब भी उसे उम्मीद की नज़र से देख रही है. इतना ही नहीं उसके नेता राहुल गांधी ने अडानी से लेकर चीन तक का मुद्दा उठा बीजेपी को परेशानी में तो डाल ही दिया है.

दूसरी तरफ अगर देखें तो बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार के कदम भी थोड़े डगमगा गए हैं. उन्होंने एक तरफ तेजस्वी को 2025 का सीएम घोषित कर दिया और दूसरी तरफ खुद आरजेडी नेता सुधाकर सिंह जैसों के आरोपों की मार भी झेल रहे हैं. बीजेपी तो पहले से ही नीतीश के राजनीतिक सफर को खत्म घोषित कर चुकी है. ऐसे में संभव है कि कमज़ोर नीतीश कांग्रेस का साथ स्वीकार कर सकते हैं. आरजेडी के लिए तो ये एक अच्छा मौका है कांग्रेस से समझौता कर उसे केंद्र में लाने और खुद के लिए राज्य मांग लेने का.

वहीं टीआरएस के केसीआर भी थोड़े ठंडे पड़े हैं. बीजेपी की सीबीआई और ईडी नीति में उनकी बेटी भी फंस गई है. दिल्ली आबकारी मामले में पहले सीबीआई ने केसीआर की बेटी कविता के पूर्व सीए बुच्ची बाबू को गिरफ्तार किया और बाद में खुद कविता को ही पूछताछ के लिए तलब कर लिया. इतना ही नहीं अभिषेक बोइनपल्ली दिल्ली शराब नीति मामले में हैदराबाद से गिरफ्तार होने वाले पहले व्यक्ति हैं जो असल में टीआरएस के संस्थापक सदस्य बोइनपल्ली हनुमंत राव के बेटे हैं. हलांकि बोइनपल्ली हनुमंत राव अब पार्टी में सक्रिय नहीं हैं लेकिन अभिषेक की गिरफ्तारी भी टीआरएस के लिए बड़ा झटका ही थी.

क्या बीजेपी की छापा-गिरफ्तारी नीति से एकजुट होगा विपक्ष ?

इसी तरह अलग अलग मामलों में बीजेपी ने तृणमूल कांग्रेस के नेताओं. मंत्रियों और यहाँ तक कि सीएम ममता बैनर्जी के भतीजे अभिषेक बैनर्जी पर भी शिकंजा कसा हुआ है. बात अगर महाराष्ट्र की करें तो शरद पवार पहले ही कांग्रेस के साथ गठबंधन के लिए तैयार थे. और अब उद्धव ठाकरे के जो हालात हैं वैसे में वो किसी भी तरह का समझौता करने तैयार हो जाएंगे.

त्रिपुरा चुनाव में पहले ही सीपीएम और कांग्रेस मिलकर लड़ रहे हैं. कश्मीर में दोनों मुख्य दल कांग्रेस के साथ आसानी से आ जाएंगे. अगर दिक्कत है तो वो है उत्तर प्रदेश. उत्तर प्रदेश में एसपी नेता अखिलेश यादव और बीएसपी नेता मायावती ने भारत जोड़ो यात्रा से किनारा कर साफ कर दिया था कि कांग्रेस का नेतृत्व तो दूर उसे उनका साथ भी मंजूर नहीं है.

अगर बात आम आदमी पार्टी की करें तो ये पंजाब, गोवा और गुजरात में कांग्रेस को काफी नुकसान पहुंचा चुकी है और कांग्रेस ने केजरीवाल से और केजरीवाल ने कांग्रेस से हमेशा दूरी बनाए रखी है. हलांकि पंजाब में खालिस्तान के नाम पर बढ़ती हिंसा और दिल्ली में भ्रष्टाचार के नाम पर मंत्रियों की जेल यात्राओं के बाद ये संभव है कि केजरीवाल कांग्रेस का साथ स्वीकार कर ले , खासकर पंजाब के मामले में. इसी तरह झारखंड में जेएमएम को कांग्रेस से परहेज़ नहीं है.

ऐसे में अगर कांग्रेस ईमानदार कोशिश करे तो ये संभव है कि बीजेपी की छापा-गिरफ्तारी नीति का उसको फायदा मिल सकता है. और ये संभव है कि तीसरे मोर्चे के बजाए देश में एक बार फिर 2024 लोकसभा चुनाव में एनडीए बनाम यूपीए की लड़ाई देखने को मिले.

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