नेताओं का कसमें खाना,वादे करना और फिर मुकर जाना आम बात है. आम जनता भी जानती है कि नेता कसमे खाते ही हैं भूलने के लिए. वो वादे करते ही हैं मुकर जाने के लिए. लेकिन अपनी बात से पलटने की कोई तो सीमा होगी. आखिर कोई नेता कितनी बार अपनी ही बात को झूठा साबित कर सकता है. कोई तो लिमिट होगी किसी के मुकरने की.
“मर जाना कबूल है लेकिन BJP में जाना नहीं…
“मर जाना कबूल है लेकिन उनके साथ जाना कबूल नहीं है.” एक बार फिर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बीजेपी को लेकर ये बयान दिया है. अकसर मुसकुरा के अपने पर होने वाले हमलों को सह जाने वाले नीतीश कुमार अब मुखर हो गए हैं. वो अटल जी की बीजेपी को मुसलमानों को साथ लेकर चलने वाली और मोदी की बीजेपी को हत्यारा तक कहने से नहीं चूक रहे हैं साथ ही ये भी कह रहे हैं कि अब मर जाएंगे लेकिन बीजेपी से हाथ नहीं मिलाएंगे.
वैसे तो ये बयान नीतीश कुमार ने बीजेपी नेता सम्राट चौधरी के उस बयान के जवाब में दिया है जो उन्होंने दरभंगा में बीजेपी कार्यसमिति की बैठक में दिया था. विधान परिषद के नेता प्रतिपक्ष सम्राट चौधरी ने कहा था कि अब बिहार में बीजेपी अकेले ही सरकार बनाएगी. नीतीश कुमार से किसी भी हालत में अब समझौता नहीं होगा. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह का भी निर्देश है. बीजेपी 2024 चुनाव में पूरी ताकत से चुनाव लड़ेगी.
इससे पहले भी तोड़ चुके हैं कई कसमें वादे
वैसे ये पहला मौका नहीं है जब बिहार की राजनीति में बीजेपी-जेडीयू के बीच प्यार और तकरार का खेल खेला जा रहा है. इससे पहले भी बीजेपी-नीतीश के ब्रेकअप की कहानी आरोपों-प्रत्यारोपों, तू-तू मैं-मैं से आगे बढ़कर फिर कभी एक ना होने की कसमें खाने तक पहुंच चुकी है. 18 फरवरी 2014 को बिहार विधानसभा में राज्यपाल के अभिभाषण का जवाब देते हुए नीतीश कुमार ने कहा था कि ‘मिट्टी में मिल जाएंगे मगर भाजपा से समझौता नहीं करेंगे. यह असंभव है, ये चैप्टर अब बंद हो चुका है.’
ये वो वक्त था जब साल 2013 में बीजेपी की ओर से लोकसभा चुनाव 2014 के लिए नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर आगे बढ़ाना नीतीश कुमार को रास नहीं आया था. 16 जून 2013 को बीजेपी ने मोदी को लोकसभा चुनाव प्रचार अभियान समिति का अध्यक्ष बनाया तो नीतीश कुमार खफा हो गए और उन्होंने बीजेपी के साथ अपने 17 साल पुराने नाते को तोड़ दिया और आरजेडी के साथ मिलकर सरकार बना ली थी.
तब भी बीजेपी जेडीयू ने एक दूसरे पर खूब कीचड़ उछाला था. धोखेबाज़ी के आरोप लगाए थे. कसमें खाई थी कि फिर एक न होंगे लेकिन ये जुदाई दोनों से ज्यादा दिन बर्दाशत नहीं हुई. 2014 में मोदी के नाम पर बीजेपी को प्रचंड बहुमत मिला और इधर बिहार में लालू और कांग्रेस के साथ मिलकर नीतीश कुमार ने 2015 में राजनीतिक महागठबंधन के नाम पर विधानसभा चुनाव में बीजेपी को पछाड़ दिया. महागठबंधन को बड़ी जीत हासिल हुई. नीतीश कुमार महागठबंधन के नेता बने और 5वीं बार बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली.
इस बार नीतीश के गले में घंटी की तरह आरजेडी ने अपने दो राजकुमार तेजस्वी और तेजप्रताप को बांध दिया. नीतीश की गर्दन इस बोझ से इतना दुखने लगी कि साल 2017 में उन्होंने महागठबंधन से हाथ खींच लिया. इस दौरान भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरे डिप्टी सीएम तेजस्वी के इस्तीफे की मांग जोरों पर थी. इस्तीफा तेजस्वी से मांगा जा रहा था और 26 जुलाई को नीतीश कुमार ने सीएम पद से इस्तीफा दे दिया, कहा कि ऐसे माहौल में काम करना मुश्किल हो गया था. और सिर्फ एक दिन बाद 27 जुलाई को बीजेपी के समर्थन से नीतीश फिर मुख्यमंत्री बन गए. 2013 की सारी कड़वाहट प्यार में बदल गई. 2013 में जो एक दूसरे को पानी पी-पीकर कोस रहे थे. एक दूसरे का डीएनए जांच रहे थे. वो अचानक प्यार और विश्वास की बातें करने लगे लेकिन ये प्यार और विश्वास ज्यादा दिन नहीं चला और 2022 में नीतीश कुमार ने एक बार फिर पलटी मारी और भतीजों के साथ सरकार बनाने में कामयाब हो गए.
इस बीच नीतीश की पलटू चाचा वाली इमेज इतनी मज़बूत हो गई कि हर दूसरे दिन खबरें उनके गुलाटी मार के बीजेपी के पाले में चले जाने की आने लगी. नतीजा ये हुआ कि जहां बीजेपी के नेता नीतीश पर हमलावार थे वहीं कार्यकर्ता परेशान कि जाने कब नीतीश को फिर गले लगाना पड़े. टीवी के स्क्रीन पर तो बीजेपी नीतीश पर हमलावर नज़र आती थी लेकिन बीजेपी का कार्यकर्ता इसे मानने को तैयार नहीं था. ऐसे में बीजेपी के लिए ये मजबूरी भी थी कि वो अपने कार्यकर्ता को यकीन दिलाये कि अब नीतीश का हाथ नहीं थामा जाएगा.
वहीं नीतीश कुमार अच्छी तरह से जानते हैं कि राजनीति में कोई स्थायी दोस्त और दुश्मन नहीं होता. इसलिए वो कभी बीजेपी को उसकी औकात याद दिला देते हैं तो कभी गले लगा लेते हैं. नीतीश और बीजेपी दोनों को सत्ता का ऐसा नशा है कि वो उसके लिए कडवे से कडवा घूँट पीने को तैयार रहते हैं. इसलिए आगे भी बीजेपी-जेडीयू के बीच ये प्यार और तकरार का खेल जारी रहने की पूरी उम्मीद है.
बिहार की राजनीति में नीतीश फिलहाल उस तुरुप के पत्ते की तरह हैं जो जिस भी खिलाड़ी के हाथ लग जाता है वो खेल में बाज़ी मार लेता है. और बिना बड़े नेता और किसी बड़े नाम के बिहार बीजेपी के लिए तो नीतीश एक तरह से मजबूरी से बन गए हैं.