बिहार की राजनीति में अगर कोई कृष्ण है तो वो हैं नीतीश कुमार. किसको कब लड़ाना है कब, किसको मनाना है और कब किससे नाराज़ हो जाना है खुद ही तय करते हैं. इस बार नीतीश कुमार ने अपनी सरकार के कैबिनेट विस्तार में तेजस्वी यादव को अभिमन्यू का रोल दिया है. तेजस्वी को अपने भरोसेमंद और पुराने साथी कांग्रेस से अभी अपनी पार्टी के मंत्रीपद और आगे अपनी मुख्यमंत्री पद की दावेदारी को बचाना है. जी हां तेजस्वी यादव फिलहाल नीतीश कुमार के बुने चक्रव्यूह में फंस गए हैं. बताया जा रहा है कि इसबार जब आरजेडी -जेडीयू का मिलन हुआ तो एक डील भी हुई.
क्या है आरजेडी-जेडीयू की खास डील?
इस ‘खास डील’ के मुताबिक आरजेडी नीतीश कुमार को दिल्ली पहुंचाएगी और बदले में जेडीयू तेजस्वी को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर पहुंचाएगी. कहा जाता है कि इसी डील के चलते कई बार तेजस्वी यादव कांग्रेस से क्षेत्रीय दलों को ड्राइविंग सीट देने की मांग कर चुके हैं लेकिन कांग्रेस है कि मानती नहीं.
अगस्त 2022 में जब नीतीश कुमार के नेतृत्व में महागठबंधन की सरकार बनी कांग्रेस तभी इस डील को समझ गई थी लेकिन उस वक्त उसकी प्राथमिकता बीजेपी को सत्ता से बाहर करना था इसलिए वो खामोश हो गई. अगस्त में महागठबंधन सरकार में नीतीश-तेजस्वी समेत 31 मंत्री बनाए गए. जिसमें से 17 आरजेडी के, 12 जेडीयू के ,2 कांग्रेस के और बाकी दो हम पार्टी और निर्दलीय कोटे से बनाए गए.
कांग्रेस उस समय भी बिलकुल संतुष्ट नहीं थी. वो अपने दो और विधायकों को मंत्री बनाना चाहती थी. उसने तर्क दिया था कि 80 सीटों वाली आरजेडी को 17 पद और 19 सीटें वाली कांग्रेस को सिर्फ 2 पद किस आधार पर दिए गए. इसके साथ ही कांग्रेस की नाराज़गी ये भी थी कि उसको कम मंत्रीपद तो दिए ही गए हैं लेकिन लेकिन जो मंत्रीपद दिए भी गए वो किसी के काम के नहीं हैं.
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कांग्रेस मांग रही है सरकार में बराबर की हिस्सेदारी
अब जब जनवरी से कैबिनेट विस्तार की सुगबुगाहट शुरु हुई तो कांग्रेस ने 2 पद की मांग शुरू कर दी. और यहीं पर अनुभवी नीतीश कुमार ने असल खेल कर दिया. उन्होंने खुद इस मामले को सुलझाने के बजाए तेजस्वी यादव को आगे कर दिया. तेजस्वी भी शायद चाचा के चक्रव्यूह को पहचान नहीं पाए और उतर गए कांग्रेस से दो-दो हाथ करने. पहले कहा कांग्रेस मंत्रियों की लिस्ट लेकर आए, फिर बात की जाएगी. इसके जवाब में कांग्रेस ने कहा विस्तार नीतीश कैबिनेट का है तेजस्वी कैबिनेट का नहीं. इसके साथ ही कांग्रेस ने 5 विधायकों पर एक विभाग का फॉर्मूला भी पेश कर दिया. कांग्रेस का कहना था कि 243 सदस्यों वाली बिहार विधानसभा में महागठबंधन के पास अभी 145 विधायकों का समर्थन प्राप्त है. इस हिसाब से बिहार कैबिनेट में नियमानुसार 36 मंत्री बनाए जा सकते हैं. जिसका मतलब है कि यहां 5 विधायक पर एक मंत्री पद का फॉर्मूला एकदम फिट बैठता है. कांग्रेस ने कहा उसके फॉर्मूले के हिसाब से 80 विधायक वाली आरजेडी को 16 पद, 43 विधायकों वाली जेडीयू को 9 मंत्री पद और 19 विधायकों वाली कांग्रेस को 4 मंत्री पद मिलेंगे.
कांग्रेस की अपने मंत्रियों की संख्या दोगुनी करने के साथ साथ एक और मांग भी है. उसका कहना है क्योंकि वो गठबंधन में तीसरी सबसे बड़ी पार्टी है इसलिए उसे सरकार में महत्वपूर्ण और बड़ा विभाग भी मिलना चाहिए लेकिन आरजेडी इन दोनों मांग को मानने के लिए तैयार नहीं है. आरजेडी जानती है कि अगर आज कांग्रेस को संख्या के आधार पर मंत्रीपद दिए गए तो कल उसे विधानसभा और लोकसभा में सीटें भी देनी होगी. जिसका मतलब ये होगा कि आरजेडी जो सपना तेजस्वी यादव के मज़बूत मुख्यमंत्री बनने का देख रही है उसे कांग्रेस मजबूर मुख्यमंत्री में बदल सकती है.
बिहार कांग्रेस को क्यों लगता है कि उसे बराबर भागीदारी मिलनी चाहिए?
इसलिए दिल्ली में पिता लालू यादव से मिलकर लौटे तेजस्वी यादव ने साफ कर दिया कि अगर बहुत होगा भी तो कांग्रेस को एक और मंत्रीपद दिया जा सकता है लेकिन कांग्रेस अभी इसके लिए तैयार नहीं दिखती. अब सवाल ये है कि कांग्रेस ने बिहार में ऐसा कौन सा तीर मार लिया है कि उसे लगता है कि वो बिहार में बड़े भाई लालू यादव के साए से निकलकर अपना मज़बूत आशियाना बनाने में सक्षम हो सकते हैं.
तो यहां इंट्री होती है कांग्रेस के सांसद राहुल गांधी की. राहुल गांधी जब कांग्रेस के उपाध्यक्ष बने थे तभी उन्होंने साफ किया था कि वो लंबी रणनीति पर काम कर रहे हैं. वो संगठन को मज़बूत करने के पक्ष में थे लेकिन उनकी रणनीति के चक्कर में बिहार कांग्रेस ने एक के बाद एक अपने सारे बड़े नेता जेडीयू या आरजेडी के हाथों गंवा दिए. पिछले 10 सालों में बिहार कांग्रेस के कई दिग्गज नेता पार्टी छोड़ चुके हैं. इनमें पूर्व प्रदेश अध्यक्ष महबूब अली कैसर, अशोक चौधरी, दिलीप चौधरी, अमिता भूषण शामिल हैं. इन सभी ने पार्टी छोड़ते वक्त लालू परिवार के साथ कांग्रेस के गठबंधन को कांग्रेस की सबसे बड़ी गलती बताया था. इन नेताओं के आरोपों को सच साबित करने के लिए लोकसभा में बिहार कांग्रेस की गिरती सीटें काफी थी. लोकसभा में1999 में कांग्रेस को दो, 2004 में 3, 2014 में 2 और 2019 में 1 सीट पर जीत मिली थी. ऐसा ही हाल विधानसभा में भी देखा गया जहां आरजेडी ने कांग्रेस को हमेशा कम सीटें दी. नतीजा ये हुआ कि कांग्रेस का पारंपरिक मुस्लिम और दलित वोट आरजेडी में मिलकर उसे मजबूत बना रहा था लेकिन बदले में कांग्रेस इतने कम में समेट दी गई थी कि उसे कोई फायदा मिलता नहीं दिख रहा था.
कांग्रेस नेतृत्व पहले ही यूपी बिहार में अपना केडर मज़बूत करने में लगा था. ऐसे में इसबार उसने अपने कोटे से दो ऐसे मंत्री बनाए जिसने आरजेडी के कान खड़े कर दिया. मुसलमान अफाक आलम और दलित मुरारी गौतम को कांग्रेस ने मंत्रिमंडल में भेजा तो आरजेडी को अपने एम वाई समीकरण की चिंता सताने लगी. इस बीच राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा और हाथ से हाथ जोड़ो अभियान ने भी बिहार में कांग्रेस की ज़मीन सींचने का काम किया. राहुल गांधी कन्याकुमारी से कश्मीर पहुंचे तो बिहार बीजेपी ने भी अब तक 1000 किमी की पैदल यात्रा पूरी कर ली है. ज़मीन पर दिखना शुरु हुई कांग्रेस को लोगों का समर्थन मिलता भी नज़र आया. अब देखना ये होगा कि बिना किसी बड़े चेहरे के कांग्रेस कब तक अपने पैरों पर खड़ी रह पाएगी. या फिर एक बार उसे बड़े भाई आरजेडी के सामने घुटने टेकने पड़ेंगे.
आरजेडी-कांग्रेस की खटास का नीतीश पर नहीं होगा असर
वैसे आरजेडी और कांग्रेस में जो भी हो लेकिन इसका असर नीतीश कुमार पर फिलहाल पड़ने वाला नहीं है. अगर कांग्रेस आरजेडी से नाराज हो अकेले मैदान में उतरने का फैसला करती है तो जेडीयू के पास उसके साथ गठबंधन का रास्ता खुला होगा. और अगर कांग्रेस तेजस्वी के सामने घुटने टेक देगी तो भी नीतीश कुमार के लिए अच्छा ही है. यानी तेजस्वी को आगे कर नीतीश कुमार ने कांग्रेस को तो साध ही लिया है और बीजेपी का रास्ता तो उनके लिए हमेशा खुला ही रहता है. यानी डील के मुताबिक नीतीश कुमार केंद्र की दो बड़ी पार्टियों तक तो पहुंच ही गए हैं लेकिन केंद्र पहुंचते हैं या नहीं ये देखना दिलचस्प होगा.