दिल्ली : Ramesh Bidhuri ने संसद में जिस भाषा का इस्तेमाल किया उसके बाद फिर ये सवाल उठने लगे हैं कि 2024 लोकसभा चुनाव का मुद्दा क्या होगा? क्या कांग्रेस कथित नफरत के बाज़ार में मुहब्बत की दुकान खोल पाएगी या नफरत के बाज़ार में ही आरएसएस की छोटी-छोटी प्यार की ठेलियां बीजेपी को जीत दिला पाएंगे.
क्या है एनडीए का 2024 का प्लान
वैसे 2024 की रणनीति में जहां विपक्ष यानी इंडिया का एजेंडा साफ है वहीं पक्ष यानी एनडीए या कहें बीजेपी और उनकी वैचारिक जनक पार्टी आरएसएस की कथनी और करनी में बहुत फर्क नज़र आ रहा है. असल में मामला सिर्फ फर्क का भी नहीं है. सत्ताधारी गुट की रणनीति में दो विरोधाभासी विचारों का टकराव भी दिख रहा है.
Ramesh Bidhuri या भागवत कौन है सत्तारूढ़ दल का पोस्टर ब्वॉय
गुरुवार यानी 21 सितंबर को देश की नई संसद में जो बदजुबानी कहें या अपराध जहां बीजेपी के एक सांसद रमेश बिधुड़ी Ramesh Bidhuri ने बीएसपी के एक मुसलमान सांसद दानिश अली को लोकतंत्र के मंदिर में आतंकवादी, मुल्ला, कटवा जाने क्या क्या कहा…..Ramesh Bidhuri ने जो कहा वो बीजेपी का वो मूल विचार है जिसके बाज़ार में कांग्रेस मुहब्बत की दुकान खोलने की बात कर रही है. इस विचार के कई पोस्टर ब्वॉय हैं. Ramesh Bidhuri के अलावा अनुराग ठाकुर, कपिल मिश्रा का नाम इन्हीं की अगली पंक्ति में आता है. वहीं दूसरे पोस्टर ब्वॉय हैं सत्तारूढ़ दल के वैचारिक जनक आरएसएस के प्रमुख मोहन भागवत. शनिवार 23 सितंबर को उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में एक बैठक हुई जिसमें संघ प्रमुख मोहन भागवत ने संघ को एक समावेशी संस्था बनाने के विचार पर ज़ोर देते हुए संघ के कार्यकर्ताओं से कहा कि वह मुसलमानों और ईसाइयों के बीच काम करें. उनसे मेल-जोल बढ़ाएं. उनके पादरियों और मौलानाओं से मिलें. उनका विश्वास जीतें. इतना ही नहीं आरएसएस के 100 साल पूरे होने पर पार्टी अपना चेहरा बदलने की पूरी कोशिश में है. वो दलित और आदिवासी युवाओं को संगठन से जोड़ने के कई कार्यक्रम पहले ही चला रही है.
क्या है आरएसएस का सामाजिक सद्भाव एजेंडा
तो अगर शनिवार को लखनऊ में अवध प्रांत के पदाधिकारियों की बैठक की बात करें तो सूत्रों का कहना है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) प्रमुख मोहन भागवत ने संघ पदाधिकारियों से गैर-हिंदुओं के बीच काम को प्राथमिकता देने का आग्रह किया. उन्होंने आरएसएस को सिर्फ एक हिंदू समर्थक संगठन के बजाय एक समावेशी संगठन बनाने के प्रयास की बात कही. भागवत ने आरएसएस पदाधिकारियों को सिख, ईसाई, मुस्लिम, जैन समेत अन्य धर्मों के गैर-हिंदुओं के बीच काम करने के निर्देश दिए. बताया जा रहा है कि ये निर्देश बैठक के “सामाजिक सद्भाव” एजेंडे का हिस्सा थे.
वैसे ये पहली बार नहीं है, इससे पहले प्रधानमंत्री मोदी तीन तलाक पर कानून बना कर मुसलिम बहनों के दिल जीतने और बीजेपी कार्यकर्ताओं से पसमांदा मुसलमानों के बीच काम करने का आह्वान कर चुके हैं.
केरल में तो बाकायदा ईद और क्रिसमस पर आरएसएस कार्यकर्ताओं को मुसलमान और ईसाई समुदाय के घर जाने और खुशियां बांटने को भी कहा गया था. इसी तरह हरियाणा में खुद सर संचालक मोहन भागवत के निर्देश पर बीजेपी ने गैर हिंदुओं के साथ चाय पीने और उसके साथ ली गई सेल्फी को पार्टी के ऐप पर अपलोड करने का आदेश भी दिया.
यानी कांग्रेस की मुहब्बत की दुकान के जवाब में आरएसएस और बीजेपी अपने कार्यकर्ताओं को प्यार की ठेलियां लगाने को कह रहे हैं.
क्या बीजेपी और आरएसएस में है एजेंडे को लेकर टकराव
तो एक तरफ नफरत की ज़बान है और दूसरी तरफ प्यार की पुचकार ऐसे में आरएसएस बीजेपी का असल चेहरा कौन सा है. क्या मोहन भागवत का मुसलमान धर्मगुरुओं से मिलने वाला चेहरा असली है या लोकसभा में रमेश बिधुड़ी का जो चेहरा दिखा वो असली है. सवाल इसलिए भी कि देश में जिन प्रधानमंत्री को इफ्तार और नमाज की टोपी से परहेज है वो तुर्की में मस्जिद में पहुंच जाते हैं. कभी पीएम मोदी पसमांदा मुसलमानों की बात करते हैं और कभी सनातन धर्म को खत्म करना विपक्ष गुट का मुख्य मकसद बताते हैं. तो जहां एक तरफ आरएसएस दलितों और गैर हिंदुओं को जोड़ने की रणनीति पर काम कर रहा है वहीं बीजेपी कट्टर हिंदुत्व के एजेंडे पर अटक गई है. क्या आरएसएस की पकड़ बीजेपी पर कमजोर पड़ गई है. क्या बीजेपी दिल से आरएसएस के एजेंडे के साथ नहीं है.
क्या एक साथ इनकार और इकरार की रणनीति से बनेगी 2024 की बात
या फिर कहें कि बीजेपी-आरएसएस की रणनीति एक ही है. असल में प्यार का इजहार सिक्के का एक पहलू है तो नफरत और तकरार दूसरा. एक पहलू जो कट्टर हिंदू वोट को जोड़ेगा और दूसरा लिबरल हिंदुओं के साथ गैर हिंदुओं को करीब लाएगा.
क्या दो चेहरों के सहारे लगेगी बीजेपी की 2024 में नैय्या पार
लेकिन सवाल ये उठता है कि सोशल मीडिया और तकनीक के दौर में एक साथ दो चेहरे रख पाना आसान है क्या. जब बिधूड़ी बोलेगा तो क्या गैर हिंदू खासकर मुसलमान आरएसएस के सामाजिक सद्भाव पर भरोसा कर पाएगा. जब लोकसभा में आतंकी कह कर गाली दी जाएगी तो क्या गैर हिंदू आरएसएस के समावेशी विचार की कद्र कर पाएगा. कहीं ऐसा तो नहीं कि दो चेहरे हिंदू और गैर हिंदू दोनों के दिलों में संदेह पैदा कर देंगे. और ये संदेह बीजेपी-आरएसएस के सत्ता में 50 साल तक बने रहने के सपने पर पानी फेर देगा. वैसे भी कहते हैं न कि दो किश्तियों की सवारी में डूबना पक्का होता है.क्या बीजेपी-आरएसएस दो कश्तियों की सवारी में बैलेंस बना पाएंगे ?
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