Gaya में एक नई मिसाल
बता दें गया जिला के बोधगया में मौजूद महादलित बस्ती,के बच्चे पहले सुजातागढ़ और बौद्ध धार्मिक स्थलों पर विदेश से आए लोगो से भीख मांगते थे या चरवाहा का काम किया करते थे. लेकिन अब वह बच्चे भीख मांगना और चरवाहा का काम छोड़ कर वे स्कूल में अतिथि देवो भवः के लिए हिन्दी, अंग्रेजी के साथ तिब्बती भाषा भी सीख रहे है. इन बच्चों को भीख मांगने के काम से निकाल कर इनको अक्षर का ज्ञान दिया जा रहा है और अज्ञानता के अँधेरे से ज्ञान की रौशनी की तरफ लेजाने का काम किया जा रहा है.
ये मिसाल देने वाला काम कर रहे हैं रामजी मांझी जिनकी उम्र लगभग 50 साल है. जिन्होंने ऐसे लाचार और बेबस बच्चों की ज़िन्दगी सवारने का बीड़ा उठाया है. रामजी खुद कम पेढ़े लिखे होने के बाद भी शिक्षा के विकास के लिए संजीदा हैं. जीवन के 55वें वर्ष में प्रवेश कर चुके राम जी बकरौर के महादलित बस्ती में रहने वाले महादलित परिवार के करीब दो सौ बच्चों को पूराने चरवाहा भवन को ठीक करवाकर वहां पढ़ा रहे है. जिसके लिए किताब-कॉपी उपलब्ध कराई जाएंगी. इसके लिए बच्चों को किसी प्रकार का शुल्क नहीं देना पड़ता है. खास बात यह है कि इन बच्चों को मात्र अक्षर ज्ञान ही नहीं दिया जाता, बल्कि संस्कार भी दिए जा रहे हैं.
हर रोज़ यह बच्चे सुबह 9 बजे से दोपहर 12ः30 तक चलने वाले विद्यालय में पढ़ने जाते है. इस विद्यालय में पढ़ने वाले बच्चे हिंदी, अंग्रेजी के साथ साथ तिब्बती भाषा सीख रहे है ताकि आने वाले समय में वह पर्यटकों को उनकी ही भाषा में गाइड कर सके और उन्हें उस स्थान की जानकारी दे सके.
विद्यालय के निदेशक रामजी मांझी ने बताया कि गांव के महादलित बच्चे ज्यादातर भीख मांगने का काम करते थे. लेकिन सुबह में यहां संचालित स्कूल के खुल जाने के कारण अब सभी बच्चे यहां पढ़ने आते है. जब बिहार के सीएम लालू प्रसाद यादव थे उस वक्त यह चरवाहा स्कूल खोला गया था. जिसके कुछ ही दिनों के बाद स्कूल बंद हो गया और धीरे धीरे स्कूल का भवन छतिग्रस्त होता गया. रामजी मांझी ने खुद अनपढ़ रहने के बाद भी अपने समाज के बच्चों को पढ़ाने का सोचा और बकरौर गांव में रहे जर्जर चरवाहा भवन की मरम्मती खुद के तीन कट्ठे जमीन को बेचकर मिले पैसे से किया है.
रामजी मांझी ने बताया कि हम भी इसी समाज से आते है. घर में पैसे की कमी के कारण 1980 में तिब्बती लोगों के साथ 25 रुपये महीना पर काम करने के दिल्ली चले गए थे. वहीं पर उन लोगों के साथ रहकर तिब्बती भाषा सीखा और तिब्बती महिला से ही शादी भी किया. मगर कुछ साल बाद जब वो अपने गांव वापस आए तो देखा की महादलित समाज के छोटे छोटे बच्चे, बौद्ध मंदिर के पास या तो भीख मांगते है या फिर चरवाहा का काम करते फिरते हैं. उन्होंने गांव के लोगों के साथ मिलकर यह निशुल्क स्कूल शुरू किया.
रिपोर्ट: पुरुषोत्तम कुमार