Thursday, September 19, 2024

अरविंद केजरीवाल के फार्मूले को बिहार में आज़मा रहे है पीके, यात्रा से राजनीति की ज़मीन तलाश रहे प्रशांत किशोर

2 अक्तूबर को पश्चिम चंपारण के भितिहरवा से शुरू हुई राजनीतिक रणनीतिकार प्रशांत किशोर की यात्रा को 2 महीने से ज्यादा हो गए हैं. भितिहरवा का गांधी आश्रम वो जगह है जहां से राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने 1917 में अपना पहला सत्याग्रह आंदोलन शुरू किया था. जब प्रशांत किशोर ने यहां से यात्रा की शुरुआत की तो कहा कि उनकी यात्रा के तीन मकसद होंगे. पहला मकसद था जमीनी स्तर पर सही लोगों की पहचान करना. दूसरा मकसद था उन सही लोगों को एक लोकतांत्रिक मंच (जन सुराज) पर लाना और तीसरा मकसद था यात्रा के जरिए शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि और उद्योग सहित विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों के विचारों को शामिल करके राज्य के लिए एक विजन दस्तावेज बनाना.

गैर राजनीतिक से राजनीतिक होती जा रही है पीके की यात्रा
प्रशांत किशोर ने बिहार में पैदल चलकर 3,000 किलोमीटर की कठिन पदयात्रा करने का फैसला किया. आपको बता दें 3,000 किलोमीटर यानी दक्षिण में कन्याकुमारी से नई दिल्ली के बीच की दूरी से भी ज्यादा चलना होगा पीके को. पिछले दो महीने से प्रशांत किशोर लगातार चल रहे हैं. लेकिन जैसे-जैसे प्रशांत किशोर की यात्रा का दायरा बढ़ रहा है उनके बयान बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव और उनके पिता लालू यादव तक सिमटते जा रहे हैं.
यात्रा की शुरुआत में पीके ने एक गैर-राजनीतिक मंच बनाया था जिसका नाम था जन सुराज. पीके ने कहा था कि उनकी यात्रा भी गैर-राजनीतिक होगी. इसलिए पहले वो प्रशासनिक व्यवस्था, राज्य की गरीबी, बेरोज़गारी, अशिक्षा को मुद्दा बनाते थे और उन्हीं मुद्दों पर बयान और भाषण दे रहे थे. लेकिन जैसे-जैसे समय बीता पीके के बयान न सिर्फ राजनीतिक हो गए बल्कि अगर ध्यान से देखें तो अब तो वो लालू परिवार और नीतीश कुमार पर व्यक्तिगत हमले भी कर रहे हैं.
जब प्रशांत किशोर ने अपनी यात्रा के इरादे को पहली बार जनता के सामने रखा था तब उन्होंने कहा था कि, फिलहाल वो एक नई राजनीतिक पार्टी बनाने की अपनी आरंभिक योजना को टाल रहे हैं. उन्होंने कहा कि अगले कुछ वर्षों में बिहार में कोई चुनाव नहीं होने वाला है. ये कह कर उन्होंने आगे भविष्य के लिए ‘जन सुराज’ को एक राजनीतिक दल में बदलने का विकल्प खुला रखा था.
तब पीके ने कहा था कि वो अगले पांच से छह महीने हर दिन पैदल यात्रा कर जनता की आकांक्षाओं को समझने के लिए उनके साथ बातचीत करेंगे. प्रशांत किशोर ने कहा था कि जनता ही लोकतंत्र की ‘असली स्वामी’ है. बिहार में जन्मे प्रशांत किशोर ने कहा था कि बिहार एक गरीब राज्य है, जो विकास, आधुनिकीकरण और औद्योगीकरण के लिए बेताब है, ताकि आजीविका की तलाश में दूसरे राज्यों में पलायन करने वाले युवाओं के लिए अधिक रोजगार सृजित हो सके.

अरविंद केजरीवाल के फार्मूले को बिहार में आज़मा रहे है पीके
अबतक जो हमने आपको बताया उसे सुनकर आपको दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल के शुरुआती बयानों की याद तो नहीं आ रही. जी हां कई जानकारों ने पीके की यात्रा को अरविंद केजरीवाल के अन्ना आंदोलन से मिलता जुलता बताया है. अन्ना के आंदोलन को केजरीवाल ने महात्मा गांधी का सत्याग्रह बताया था और पीके ने तो अपनी यात्रा की शुरुआत ही गांधी से जोड़ कर की है. कई जानकारों का कहना है कि असल में पीके की यात्रा के पीछे का असल मकसद केवल यह महसूस करना है कि क्या उनके लिए बिहार में राजनीतिक रूप से कोई गुंजाइश है या नहीं, और अगर है तो क्या वो वही कर सकते हैं जो उनके ग्राहक रहे अरविंद केजरीवाल ने बदलाव और बेहतर शासन के नाम पर दिल्ली और पंजाब के मतदाताओं को लुभाने के लिए किया.
वैसे जब पीके ने अपनी यात्रा और विजन डॉक्यूमेंट की जानकारी साझा की थी तो उन्हें सभी दलों ने हलके में लिया था. बीजेपी ने प्रशांत किशोर को एजेंट और पॉलिटिकल ब्रोकर बताया था तो आरजेडी के संस्थापक अध्यक्ष लालू प्रसाद ने कहा था कि किशोर पूरे देश में घूम-घूमकर बिहार लौट आए हैं और अब उनके लिए बिहार में भी कोई जगह नहीं है. वहीं जेडीयू नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने तो उनको दलाल ही कह दिया था.

फेल हो रही है पीके की रणनीति
ये वो समय था जब पीके कांग्रेस में अपना भविष्य तलाशने की कोशिश कर चुके थे. पीके कांग्रेस में गांधी परिवार के बाद सबसे ताकतवर पोस्ट चाहते थे. शायद उन्हें लगता था कि हर ओर से हार का सामना कर रही कांग्रेस उनको तिनके का सहारा समझ थाम लेगी. उनका नाम सुनकर ही कांग्रेस घुटने टेक देगी, लेकिन कांग्रेस के दिग्गजों के सामने पीके की दाल नहीं गली. पीके बिना किसी रोड़ मैप के कांग्रेस की गाड़ी को पटरी पर लाने के दावे कर रहे थे और कांग्रेस उनसे पहले रोड़ मैप मांग रही थी.
वैसे बात सिर्फ कांग्रेस से ही नहीं बिगड़ी थी. इससे पहले प्रशांत किशोर से ममता बनर्जी भी नाराज़ हो गई थीं. प्रशांत किशोर न सिर्फ ममता बनर्जी को 2024 के आम चुनावों के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विकल्प के रुप में स्थापित करने में फेल हुए थे बल्कि तृणमूल कांग्रेस को राष्ट्रीय पार्टी दिखाने के लिए जो उन्होंने गोवा विधानसभा चुनाव में तृणमूल पार्टी की आर्थिक ताकत लगाई थी उसका परिणाम भी शून्य ही निकला था. ममता बनर्जी प्रशांत किशोर की इन दोनों असफलताओं के बाद उनसे बेहद खफा थीं .
इन असफलताओं से पहले प्रशांत किशोर 2018 में औपचारिक रूप से राजनीति में भी अपना हाथ आजमा चुके थे. 2018 में वो जनता दल यूनाइटेड में शामिल हुए थे. पार्टी में उन्हें अच्छी खासी ताकतवर पोजिशन भी मिल गई थी. अब इसे प्रशांत किशोर की महत्वाकांक्षा कहें या खराब राजनीतिक समझ कि 2020 में जब नीतीश कुमार ने संशोधित नागरिकता कानून का समर्थन किया तो प्रशांत किशोर ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की सार्वजनिक आलोचना कर दी. जिसके बाद जेडीयू ने उन्हें पार्टी से निष्कासित कर दिया. दूसरों को राजनीति समझाने वाले पीके खुद नीतीश कुमार की राजनीति नहीं समझ पाए और अपने पांव पर कुल्हाड़ी मार ली.

खाली है पीके की झोली
2022 तक प्रशांत किशोर 7 राजनीतिक पार्टियों को अपनी सेवाएं दे चुके थे. इसमें बीजेपी, कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, तृणमूल कांग्रेस, द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (DMK), और वाईएसआर कांग्रेस पार्टी (YSR Congress Party), जेडीयू के साथ पेशेवर रणनीतिकार के तौर पर काम कर चुके थे. इस दौरान प्रशांत किशोर अपने आप को राजनीतिक मास्टर माइंड और बेहद सफल रणनीतिकार के रूप में स्थापित कर चुके थे.
लेकिन बात वर्तमान की करें तो फिलहाल प्रशांत किशोर की फर्म आई-पीएसी यानी आईपैक के पास सिर्फ दो क्लाइंट हैं. तृणमूल कांग्रेस और TSR, जिसमें से ममता बनर्जी पहले ही पीके से खफा हैं. अब बचा सिर्फ TSR का नाम जिसने 2024 के तेलंगाना विधानसभा चुनावों में पार्टी की सफलता और पार्टी के नेता और मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव को एक राष्ट्रीय नेता के रूप में स्थापित करने का काम पीके को सौंपा है.
यानी प्रशांत किशोर की झोली फिलहाल खाली थी और उनकी महत्वाकांक्षाएं बड़ी हो गई थी. कई जानकार मानते हैं कि इसी खाली समय और राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के चलते प्रशांत किशोर बिहार में अपना भाग्य आजमाने पहुंचे हैं. पीके अपनी 3,000 किलोमीटर की कठिन पदयात्रा के जरिए खुद को व्यस्त रखने के साथ-साथ अपने आप को प्रासंगिक भी बनाए रखना चाहते हैं. ताकी 2024 के संसदीय चुनावों के समय वो सौदेबाजी करने की बेहतर स्थिति में हों. शायद यही वजह है कि वो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को तो निशाना बना रहे हैं लेकिन उस बीजेपी को लेकर खामोश हैं जिसने नीतीश के साथ मिलकर इतने साल सत्ता का सुख भोगा.

प्रशांत किशोर की यात्रा सिर्फ फायदे का सौदा
दूसरी तरफ पीके अपनी यात्रा के जरिए बिहार में खुद के लिए संभावनाओं का भी आकलन कर रहे हैं. वो दिल्ली के मुख्यमंत्री और अपने क्लाइंट अरविंद केजरीवाल की तरह शिक्षा, रोजगार और सुशासन के मुद्दे को उठा कर बिहार में अपने लिए संभावनाओं की तलाश भी कर रहे हैं. इस तलाश के दौरान अगर पीके के राजनीतिक रणनीतिकार वाले दिमाग को लगा कि बिहार उनके लिए अभी तैयार है तो वो अरविंद केजरीवाल की तरह अपने गैर राजनीतिक मंच जन सुराज को पार्टी में बदल चुनावी मैदान में कूद पड़ेंगे. लेकिन अगर उनको लगा कि धर्म और जाति की राजनीति में फंसा बिहार अभी उनके जन सुराज के लिए तैयार नहीं है तो वो 2024 में अपनी इस यात्रा के अनुभव का फायदा किसी राजनीतिक दल के लिए रणनीति बनाने में लगा देंगे और करोड़ों कमा लेंगे. मतलब ये कि इस यात्रा से पीके के दोनों हाथों में लड्डू होगा. हर हाल में फायदा ही होगा.

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