Friday, November 21, 2025

राज्यपाल के अधिकारों पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला-‘बिना वजह की अनिश्चित देरी न्यायिक जांच के दायरे में आ सकती है..’

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Supreme Court :  राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा भेजे गए 14 संवैधानिक सवालों पर आज सुप्रीम कोर्ट में पांच जजों की संविधान पीठ ने फैसला सुनाया. सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ आज उन सवालों पर अपना फैसला सुना रही है, जिसके अंतर्गत विधेयकों को लेकर राज्यपाल और राष्ट्रपति के द्वारा की जाने वाली कार्रवाई की समय-सीमा और उनकी शक्तियों से जुड़े हैं. दरअसल ये सवाल तब सामने आया जब एक राज्य के राज्यपाल के द्वारा विधेयक को लंबे समय तक लंबित रखा गया था. इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसला सुनाया था जिसमें कहा था कि राज्यपाल और राष्ट्रपति को किसी बिल को पास करने या न करने की फैसला उसे पारित करने की तय समय सीमा के अंदर ही होना चाहिये, जिस पर राष्ट्रपति ने संवैधानिक सीमाओं के उल्लंघन की चिंता जताई थी.

Supreme Court:पांच जजों की बेंच ने राष्ट्रपति के सवालों पर दी अपनी राय

राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की तरफ सुप्रीम कोर्ट में 14 संवैधानिक सवाल भेजे गये थे, जिसपर संविधान पीठ अपनी राय दे रही है.ये सवाल राज्यों के राज्यपाल और राष्ट्रपति की शक्तियो से जुड़े हुए हैं.

दस दिनों की सुनवाई के बाद सुरक्षित रखे गए इस फैसले का असर संघीय ढांचे, राज्यों के अधिकार और गवर्नर की भूमिका पर व्यापक होगा. अदालत ये स्पष्ट कर रही है कि क्या वह गवर्नर और राष्ट्रपति के लिए समयसीमा तय कर सकती है और क्या अनुच्छेद 200 और  201 के तहत उनके निर्णय न्यायिक समीक्षा के दायरे में आते हैं ?

राज्यपाल किसी बिल को अनिश्चितकाल तक रोककर नहीं रख सकते- संविधान पीठ की टिप्पणी

सुप्रीम कोर्ट मे लंबे विचार विमर्श के बाद गुरुवार को राष्ट्रपति के सवालों पर सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुनाना शुरु किया है. कोर्ट ने राष्ट्रपति के सवालो  पर अपनी टिप्पणी करते हुए कहा कि संविधान के  अनुच्छेद 200 और 201 के तहत राज्यपाल के पास मूल रूप से केवल 3 विकल्प उपलब्ध हैं-

– बिल को मंजूरी देना, रोकना या राष्ट्रपति के लिए सुरक्षित रखना.

अदालत ने कहा कि पहले प्रावधान यानी ‘बिल को मंजूरी देना’ को आखिरी विकल्प नहीं माना जा सकता है. जब  किसी चीज की दो व्याख्याएं हो सकती ,हैं तो उसी व्याख्या को अपनाया जाना चाहिये, जो संवैधानिक संस्थाओं के बीच सहयोग और संवाद बढ़ावा देता हो. भारतीय संघवाद की परिभाषा में ये कभी भी स्वीकार्य नहीं होगा कि राज्यपाल किसी विधेयक को बिना सदन को भेजे अनिश्चित समय के लिए अपने पास रोके रखें. राष्ट्रपति के लिए बिल सुरक्षित रखना भी संस्थागत संवाद का हिस्सा है. कोर्ट ने कहा कि ऐसे मामलों में संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों को किसी तरह के टकराव या रुकावट  पैदा करने की जगह पर संवाद और सहयोग को बढावा देना चाहिए.

सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में क्या कहा? 

सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में इस बात को स्पष्ट रुप से रखा कि राज्यपाल किसी बिल को मंजूरी देने के लिए उसे अनिश्चितकाल तक के लिए अपने पास लंबित नहीं रख सकते. कोर्ट ने कहा कि समयसीमा तय करना अलग-अलग पदों की शक्तियों के पृथक्करण (Separation of Powers) के सिद्धांत का उल्लंघन होगा. हालांकि चीफ जस्टिस बी.आर. गवई की अगुआई वाली संविधान पीठ ने अपने उस फैसले को रद्द कर दिया जिसमें कहा गया था कि राज्यपाल और राष्ट्रपति को राज्य के बिलों पर तीन महीने के भीतर फैसला करना होगा. सीजेआई ने कहा कि संवैधानिक पदाधिकारियों पर कड़े समय-सीमा लागू करना न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र से बाहर है.

राज्यपाल द्वारा बिलों को रोकना संघवाद का उल्लंघन-  सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी

संविधान पीठ ने राज्यपालों के संवैधानिक सीमाओं को रेखांकित करते हुए कहा कि किसी बिल को एकतरफा तरीके से रोकना संघवाद का उल्लंघन होगा.अगर राज्यपाल अनुच्छेद 200 में तय प्रक्रिया का पालन किए बिना विधानसभा की ओर से पारित बिलों को रोक लेते हैं, तो यह संघीय ढांचे के हितों के खिलाफ होगा.

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