सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को 4-3 बहुमत से 1967 के उस फैसले को खारिज कर दिया, जो अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी Aligarh Muslim University को अल्पसंख्यक का दर्जा देने से इनकार करने का आधार बना था. हालांकि, उसने इस फैसले में विकसित सिद्धांतों के आधार पर एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे को नए सिरे से निर्धारित करने का काम तीन जजों की बेंच पर छोड़ दिया.
Aligarh Muslim University मामले में पीठ की चार अलग-अलग राय थी
सुप्रीम कोर्ट की सात जजों की संविधान पीठ ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय अल्पसंख्यक दर्जे के मामले में चार अलग-अलग फैसले सुनाए. पीठ की अध्यक्षता कर रहे मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि चार अलग-अलग राय थीं, जिनमें से तीन असहमतिपूर्ण फैसले थे.
सीजेआई ने कहा कि उन्होंने अपने और जस्टिस संजीव खन्ना, जे.बी. पारदीवाला, मनोज मिश्रा के लिए बहुमत का फैसला लिखा है.
जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि जस्टिस सूर्यकांत, दीपांकर दत्ता और सतीश चंद्र शर्मा ने अलग-अलग असहमति वाले फैसले लिखे हैं.
पीठ ने आठ दिनों तक दलीलें सुनने के बाद 1 फरवरी को इस मामले पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था.
स्थापना से लेकर अबतक कितना बदला एएमयू
एएमयू अधिनियम, 1920 में अलीगढ़ में एक शिक्षण और आवासीय मुस्लिम विश्वविद्यालय को शामिल करने की बात कही गई है, जबकि 1951 के संशोधन में विश्वविद्यालय में मुस्लिम छात्रों के लिए अनिवार्य धार्मिक शिक्षा को समाप्त कर दिया गया है. इस विवादास्पद प्रश्न ने बार-बार संसद की विधायी सूझबूझ और न्यायपालिका की उस संस्था से जुड़े जटिल कानूनों की व्याख्या करने की क्षमता का परीक्षण किया है, जिसकी स्थापना 1875 में सर सैयद अहमद खान के नेतृत्व में प्रमुख मुस्लिम समुदाय के सदस्यों द्वारा मुहम्मदन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज के रूप में की गई थी. वर्षों बाद 1920 में, यह ब्रिटिश राज के तहत एक विश्वविद्यालय में तब्दील हो गया.
आधे-अधूरे मन से किया गया 1981 का संशोधन- न्यायमूर्ति चंद्रचूड़
न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने दलीलें समाप्त करते हुए कहा, “एक बात जो हमें चिंतित कर रही है, वह यह है कि 1981 का संशोधन 1951 से पहले की स्थिति को बहाल नहीं करता है. दूसरे शब्दों में, 1981 का संशोधन आधे-अधूरे मन से किया गया काम है.”
केंद्र सरकार एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे के खिलाफ है
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता जैसे अन्य लोगों ने तर्क दिया कि केंद्र से भारी धनराशि प्राप्त करने वाला विश्वविद्यालय और राष्ट्रीय महत्व का संस्थान घोषित होने के बाद भी वह किसी विशेष धार्मिक संप्रदाय से संबंधित होने का दावा नहीं कर सकता. इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 1981 के कानून के उस प्रावधान को खारिज कर दिया था जिसके तहत विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक का दर्जा दिया गया था. उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ एएमयू सहित शीर्ष अदालत में अपील दायर की गई थी. एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे को लेकर विवाद पिछले कई दशकों से कानूनी उलझन में फंसा हुआ है. शीर्ष अदालत ने 12 फरवरी, 2019 को विवादास्पद मुद्दे को सात न्यायाधीशों की पीठ को भेज दिया. इसी तरह का संदर्भ 1981 में भी दिया गया था. केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के 2006 के फैसले के खिलाफ अपील दायर की, जिसने एएमयू अधिनियम में 1981 के संशोधन को रद्द कर दिया था. विश्वविद्यालय ने इसके खिलाफ एक अलग याचिका भी दायर की.
भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने 2016 में सुप्रीम कोर्ट को बताया कि वह पूर्ववर्ती यूपीए सरकार द्वारा दायर अपील को वापस ले लेगी.
इसने बाशा मामले में शीर्ष अदालत के 1967 के फैसले का हवाला देते हुए दावा किया कि एएमयू अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है क्योंकि यह सरकार द्वारा वित्तपोषित एक केंद्रीय विश्वविद्यालय है.
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