Sunday, December 22, 2024

Recession 2023: मंदी से निपटने के लिए क्या तैयार है मोदी सरकार की वैक्सीन

क्या आप कोई बड़ा निवेश या खर्चा करने की सोच रहे? क्या आप लोन पर घर या कार खरीदने का मन बना रहे है? तो थोड़ा संभल कर. 2023 को लेकर अर्थशास्त्रियों का मानना है कि इस साल मंदी आएगी. पहले ही बेरोज़गारी देश में बड़ा मुद्दा है ऐसे में आर्थिक मंदी के आने की बात परेशानी बढ़ा सकती है

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जून में आएगी मंदी- केंद्रीय MSME  मंत्री नारायण राणे

आर्थिक मंदी और सुस्त अर्थव्यवस्था को लेकर खबरें अकसर आती हैं. केंद्र सरकार और वित्त मंत्री अकसर इन खबरों का खंडन भी करते हैं. कहा जाता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था मज़बूत है इसलिए वैश्विक मंदी का इसपर असर नहीं होगा. हम वैश्विक मंदी में भी बेहतर तरक्की करेंगे. लेकिन इस बार ये ख़बर इसलिए खास है क्योंकि खुद मोदी सरकार के मंत्री मंदी के आने की भविष्यवाणी कर रहे हैं.

केंद्रीय MSME  मंत्री नारायण राणे ने Infrastructure Working Group  की पहली बैठक में कहा कि “ यह सच है कि वर्तमान में विभिन्न विकसित देश मंदी का सामना कर रहे हैं. देश में जून के बाद मंदी आने की आशंका जताई जा रही है. केंद्र और प्रधानमंत्री मोदी कोशिश कर रहे हैं कि देश के नागरिकों पर मंदी का असर न पड़े.”

केंद्रीय मंत्री के इस बयान से ये तो साफ है कि मंदी आने ही वाली है. अब सवाल ये है कि मंदी का असर किसपर और कितना होगा. तो पहले ये जान लें कि मंदी आने के संकेत क्या हैं. तो जानकारों का मानना है कि दुनिया भर में महंगाई बढ़ रही है और इसका असर अर्थव्यवस्था पर भी पड़ रहा है. सेंटर फॉर इकोनॉमिक्स एंड बिजनेस रिसर्च के अनुसार, दुनिया की अर्थव्यवस्था 2023 में मंदी की ओर बढ़ रही है.

कोरोना के चलते अर्थव्यवस्था चरमरा गई

अर्थशास्त्रियों का कहना है कि दुनिया भर में महंगाई और बैंक ब्याज दर के बढ़ने से कई अर्थव्यवस्थाओं में सुस्ती देखी जा रही है. जो अर्थव्यवस्थाएं तेज विकास की उम्मीद दिखा रही थी उनके भी विकास के अनुमानों को कम कर दिया गया है.

विकास की उम्मीदों वाली अर्थव्यवस्थाओं में भारत भी एक है. कोरोना के बाद पहली तिमाही में भारत की अर्थव्यवस्था की रफ्तार लौटती नज़र आई थी. लेकिन दूसरी तिमाही आते-आते इसके सुस्त पड़ने के संकेत मिलने लगे. 2022 जुलाई-सितंबर यानी दूसरी तिमाही में जीडीपी की विकास दर 6.3 फ़ीसदी रही है. जो कि इससे पिछली तिमाही से आधे से भी कम है.

बात विश्व बैंक के आकलन की करें तो उसने भी भारत की जीडीपी के आकड़ों के अनुमान में कमी की है. विश्व बैंक ने चालू वित्त वर्ष 2022-23 के लिए भारत के जीडीपी ग्रोथ रेट का अनुमान 6.9 फीसदी कर दिया है.

महंगाई के चलते आएगी मंदी

इस बीच सीईबीआर की रिपोर्ट ने आर्थिक सुस्ती के लिए महंगाई को जिम्मेदार बताया है. सीईबीआर के निदेशक और हेड ऑफ कंसल्टिंग के डेनियल न्यूफिल्ड का कहना है कि महंगाई पर काबू करने के लिए ब्याज दरों को बढ़ा देने के कारण वैश्विक अर्थव्यवस्था में 2023 में मंदी का असर दिखेगा. रिपोर्ट में कहा गया है कि महंगाई को कम करने और कंफर्टेबल लेवल पर लाने के लिए ब्याज दरों को जिस तरह बढ़ाया जा रहा है उसकी वजह से आने वाले कुछ वर्षों में अर्थव्यवस्था कमजोर होगी.

इतना ही नहीं अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष IMF ने अक्टूबर महीने में आशंका जताई थी कि वैश्विक अर्थव्यवस्था के एक तिहाई से अधिक हिस्से में स्रिंकेज या फिर कमी दिख सकती है और 25 प्रतिशत संभावना है कि 2023 में ग्लोबल जीडीपी में महज 2 प्रतिशत की वृद्धि दिखेगी. यही वैश्विक मंदी की स्थिति होगी.

पिछले साल आरबीआई ने 5 बार बढ़ाई गई रेपो रेट

बात अगर भारत की करें तो पिछले साल कुल पांच बार आरबीआई ने रेपो रेट बढ़ाया. दिसंबर में जब पांचवीं बार  रेपो रेट बढ़ाया गया तब रेपो रेट दर 6.25 प्रतिशत पर पहुंच गई. यानी साल 2022 में केंद्रीय बैंक ने ब्याज दरों को 2.25 प्रतिशत तक बढ़ा दिया है. यानी एक साल में पांच बार रेपो रेट बढ़ा कर आरबीआई ने लोगों की पर्चेजिंग पावर बढ़ाने का सिलसिला जारी रखा. तो अब तक तो आप समझ चुके होंगे कि इस बार मंदी की वजह बनेगी महंगाई ऐसे में अर्थव्यवस्था में तेज़ी लाने के लिए सरकार को लोगों की जेब में पैसा डालना होगा ताकि वो बाजार में खर्च कर सकें.

आईटी सेक्टर में भी मंदी का असर

लेकिन अगर विपक्ष के आरोपों पर नज़र डालें तो सरकार ऐसा करती नज़र नहीं आ रही है. बेरोज़गारी के आंकड़े पहले ही परेशान कर रहे हैं . अब तो आईटी सेक्टर में भी नौकरियां जाने का सिलसिला चल पड़ा है. विदेशी कंपनियों की तो बात छोड़िए  HCL में की गई 350 लोगों की छंटनी के बाद  TCS, Infosys और Wipro के कर्मचारी भी चिंता में हैं. यानी आईटी सेक्टर में भी मंदी का ज़ोर नज़र आने की आशंका है.

ऐसे में कांग्रेस सवाल पूछ रही है कि जब अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में पिछले 7 महीने में 32% तक गिरावट आई है, तो भारत में पेट्रोल-डीज़ल की कीमतें जस की तस क्यों बनी हुई हैं. अगर सरकार अंतर्राष्ट्रीय बाजार के हिसाब से ही कीमतों का निर्धारण करती है तो पेट्रोल और डीजल की कीमतें ₹18 रुपए प्रति लीटर तक कम हो जाती. यानी सरकार अगर पेट्रोल-डीजल को सस्ता कर देती तो महंगाई के खिलाफ लड़ाई में कुछ मदद जरूर मिल सकती थी.

इतना ही नहीं अगर बात 2008 की वैश्विक मंदी की करें तो तब सरकार के इकोनॉमिक बूस्ट कर्जमाफी और सस्ते कर्ज की नीतियों ने कंजंप्शन को बढ़ाया और अर्थव्यवस्था को बनाए रखा. लेकिन अब के हालात में जीएसटी और नोटबंदी के बाद देश में आर्थिक असमानता बढ़ी है. ऑक्सफैम की रिपोर्ट के अनुसार भारत में सबसे अमीर 1% लोगों के पास अब देश की कुल संपत्ति का 40% से अधिक हिस्सा है, जबकि नीचे की आधी आबादी के पास कुल संपत्ति का केवल 3% हिस्सा ही है.

क्या बजट में मोदी सरकार देगी मंदी को रोकने के लिए बूस्टर डोज

मोदी सरकार इकनॉमिक बूस्ट यानी सस्ता राशन, मनरेगा या दूसरी ऐसी योजनाएं पर खर्च तो कर रही है ताकि आम आदमी की जेब में पैसा जा सके लेकिन कितना खर्च कर रही है वो इस बात से समझा जा सकता है कि केंद्र सरकार ऐसी योजनाओं और कर्ज माफी जैसे उपायों को रेवड़ी कल्चर बता कर उसका विरोध करती रही है. ऐसे में महंगाई कम करने के नाम पर अगर ब्याज दरों को ही बढ़ाते रहने का सिलसिला जारी रखा जाएगा तो इस बार मध्यमवर्ग की कमर भी टूट जाएगी. शायद सरकार इस बात को समझ रही है. इसलिए हाल में ही एक कार्यक्रम में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा कि वो खुद भी मध्यम वर्ग से आती हैं और मध्यम वर्ग पर जो दबाव है उसको समझती हैं. निर्मला सीतारमण इशारे में कुछ कह रही हैं. हो सकता है कि इस बार के बजट में मध्यम वर्ग के लिए कुछ खास सुविधाओं की घोषणा हो.

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